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11 September 2025

इस दौर में.......

रसातल में 
कहीं खोती जा रही हैं
हमारी भावनाएं,
शब्द और मौलिकता।
भूलते जा रहे हैं हम
आचरण,सादगी
और सहनशीलता।

कृत्रिम बुद्धिमतता 
के इस दौर में
हमारा मूल चरित्र
सिमट चुका है
उंगलियों की 
टंकण शक्ति की
परिधि के भीतर
जो अंतरजाल की 
विराटता के साथ 
सिर्फ बनाता है
संकुचित होती 
सोच का 
शोचनीय रेखाचित्र
क्योंकि वर्तमान 
तकनीकी सभ्यता वाला मानव
भूल चुका है
मानवता का 
समूल।

~यशवन्त माथुर©
11092025

15 August 2025

आजादी के गीत गाएं

नई उमंगें , नई तरंगें 
अपना तिरंगा, आओ लहराएं 
आजादी के गीत गाएं। 

आजादी जो मिली तप से 
और अनेकों कुर्बानियों से 
सारी सच्ची कहानियों को 
आओ मन से फिर दोहराएं। 

आजादी के गीत गाएं। 

गीत जिनमें रचा-बसा हो 
स्वर्णिम सा इतिहास हमारा 
विविधता में एकता और 
संस्कृति का चलचित्र दिखलाएं । 

आजादी के गीत गाएं। 

-यशवन्त माथुर© 
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20 July 2025

चलता रहा

कदम गिने बगैर राह पर चलता रहा।
बेहिसाब वक्त से सवाल करता रहा।

लोग कोशिश करते रहे बैसाखी बनने की।
सहारा जब भी लिया, मैं गिरता रहा।

माना कि बेहोश था, होश में आने के पहले।
ज़माना जीता रहा और मैं मरता रहा।

 ~यशवन्त माथुर©
20072025

22 June 2025

अवशेष

हाँ 
यह  सुनिश्चित है 
कि अंततः 
अगर कुछ बचा 
तो वह अवशेष ही होगा 
अधूरी 
या पूरी हो चुकी 
बातों का 
उनसे जुड़े 
दिनों का 
या रातों का। 
हाँ 
अनिश्चित जीवन के 
किसी एक कालखंड में 
सबको रह ही जाना है 
अपूर्ण 
बन ही जाना है 
अवशेष 
क्योंकि अवशेष ही 
होते हैं साक्ष्य 
एक रची-बसी सभ्यता 
और 
जीवन के अस्तित्व के।

-यशवन्त माथुर© 
21062025

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07 June 2025

चमकना इतना नहीं चाहता ....................

चमकना इतना नहीं चाहता 
कि चौंधिया जाओ तुम 
बस तमन्ना इतनी है 
कि धरती को छूता रहूँ।  

यूं तलवार की धार पर 
चलता तो रोज ही हूँ 
मगर बनकर  कोई पेड़ 
छाया किसी को देता रहूँ । 

कई चौराहे आ चुके 
कई आने बाकी हैं 
मंजिल को पा सकूँ 
या मंजिल ही बनता रहूँ। 

चमकना इतना नहीं चाहता 
कि चौंधिया जाओ तुम 
बस तमन्ना इतनी है कि 
अपने मूल  में बीतता रहूँ। 


-यशवन्त माथुर©

17 April 2025

कुछ लोग-59

कुछ लोग
मन में द्वेष
जुबान पर अपशब्द
और रूप में
मासूमियत लिए
कराते हैं एहसास
अपनी कड़वी 
तासीर का।
ऐसे लोगों की 
चाहत होती है
कि वो आगे हो सकते हैं
अपने वर्तमान से
लेकिन वास्तव में
सदियों पीछे की
रूढ़ियों को गठरी में बांधे 
ऐसे कुछ लोग
अक्षम होते हैं
खुद के तन 
और मन की
कदमताल कराने में भी।

-यशवन्त माथुर© 
17042025
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13 March 2025

रंग

यूं तो 
बहुत कुछ 
स्याह - सफेद 
लगा ही रहता है 
जीवन में 
बने रहते हैं 
कुछ दर्द 
हमेशा के लिए 
फिर भी 
आते-जाते 
चलते-फिरते 
हमारा वास्ता 
पड़ता ही है 
रंगों से।  
रंग 
कुछ होते हैं 
हमारी पसंद के 
और कुछ को 
हम 
देखना भी नहीं चाहते 
फिर भी रंग 
समेटे होते हैं 
अपने भीतर 
बहुत सा 
सुख-दुख
और कुछ पल 
जिनको जी कर 
हम बस यही चाहते हैं 
कि रंग बने रहें 
हमेशा के लिए। 

-यशवन्त माथुर© 
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02 February 2025

बस इतना वर मिले .....

जो घूम रहा 
लावारिस बचपन 
बना रहे 
उनका लड़कपन 

बस इतना वर मिले 
हर मुरझाया चेहरा खिले। 

हो विस्तार 
सिमटी समृद्धि का  
न किसी को 
भेद भाव मिले 

बस इतना वर मिले 
सबको अमन-चैन मिले।

जैसे बिछी है चादर 
खिली सरसों की 
जैसे हर क्यारी में 
गेंदा फूल 

ऐसे ही हर जन-मन के 
चेहरे को मुस्कान मिले। 

बस इतना वर मिले। 

(वसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएँ)


-यशवन्त माथुर©
02 फरवरी 2025 
 
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23 January 2025

दोराहे

अक्सर
जिंदगी के 
किसी मोड़ पर 
चलते चलते
हम 
खुद को पाते हैं
एक ऐसे
दोराहे पर
जहां 
दिल और दिमाग में 
बसी 
हमारी थोड़ी सी
समझ
लड़खड़ाने लगती है
गश खाने लगती है
कभी
किसी डर से
कभी
किसी झिझक से
या कभी
समय के
गति परिवर्तन से।
अचानक 
सामने आ जाने वाले
ये दोराहे
जरूरी भी होते हैं
हमारे खुद के
परिवर्धन के लिए।

-यशवन्त माथुर©
23 जनवरी 2025


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