हालातों के हाल तत्काल न मिला करते थे।
तार के नाम से दिलो जान हिला करते थे।
15 पैसे का पोस्टकार्ड हफ्तों घूमा करता था।
'बैरंग' होता था कभी गुमा करता था।
आवाजें आती थीं घरों से पुराने गानों की।
आवभगत अच्छी होती थी आने वाले मेहमानों की।
10वीं 12वीं का रिजल्ट अखबार में छपा करता था।
3rd डिविज़न पाने वाला कभी न पिटा करता था।
माना कि एक दूरदर्शन था मगर संस्कारी था।
सीधा-सादा था वो न अहंकारी था।
उसमें थे 'हम लोग', 'चित्रहार' और 'रंगोली'।
एकता के इस मंच पर थी हर भाषा और बोली।
आवश्यकताएं सीमित थीं, लोग खुले में सोया करते थे।
चांद सितारों के संग ख्वाबों में खोया करते थे।
न इंटरनेट था न मोबाइल ही होता था हाथों में।
पल बीत जाते थे छोटी सी मुलाकातों में।
तब न गूगल था, न गूगल ट्रांस्लेट हुआ करता था।
हर पढ़ने वाला खूब मेहनत किया करता था।
बातें कई और भी हैं 'मॉर्टन' टॉफी की मिठास की।
वो पसंद सबकी थी हर आम और खास की।
हाँ! माना कि अपने आज को सबने सपनों से सजाया है।
हमने वो दौर भी देखा है जिसने इसकी नींव को बनाया है।
-यशवन्त माथुर© 01092024
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