12 June 2010

जो मेरा मन कहे

जो मेरा मन कहे कि ,

आज आसमान को छू लूँ मैं,

और उसे छूने की चाह में

उठता जाऊं ,और ऊपर उठता जाऊं

कोई कहता रहे

लोग पुकारते रहें

आवाज़ देते रहें मुझ को

मगर मैं

मैं

उनको देखूं और बढ़ता जाऊं

एक नई मंजिल की ओर ।

जो मेरा मन कहे कि

कि अब थोडा आराम कर लूँ

लम्बे सफ़र का राही हूँ

कुछ दूर और चलना है

कि मैं कहता हूँ अपने मन से

नहीं अब मैं नहीं रुकुंगा

वो साहिल नज़र आ रहा है

अनंत के उस पार

अब तो वहीँ जाकर

ठीक से सो सकूँगा । ।



5 comments:

  1. बहुत सुन्दर मन की आवाज़ ... जब तक मंजिल पर न पहुंचे चलते जाना है ..

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  2. kya baat hai......aapne is kavita ke madhyam se bahut kuch kaha diya.....uttam prastuti

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  3. मन की बात कितनी सहजता से कहते है आप.. यशबन्त गी....

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  4. मन की बाद सहज शब्दों में व्यक्त कि है आपने.शुरू कि पंक्तियों में सकारात्मकता भी देखते ही बनाती है.

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