17 September 2010

क्यों हो तुम दूर मुझ से...............

क्यों हो तुम
दूर मुझ से
क्यों टकटकी लगाये
देखती रखती हो अपलक
चाहती हो
आकर मुझ से मिलना
और मेरे सीने से लगकर
तुम रोना चाहती हो
मैं समझता हूँ
मगर मैं क्या करूं?
और शायद तुम भी
कुछ नहीं कर सकती
बस महसूस  करती हो
 
मुझ को
पीती हो मेरे आंसुओं को
उन आंसुओं को
जिन्हें देख कर
तुम्हारे सीने पर
चोट करने वाला
वो प्राणी (इंसान)
बरसात की बूँदें समझ कर
खुश होता है
और तुम (एक हंसी का स्वर..)
सब जान कर
सब समझ कर भी
शांत रहती हो
घुटती रहती हो
सब दर्द झेलती रहती हो
और जब सह नहीं पाती हो
तब टूट कर बिखर जाती हो
 
शायद यही हमारी नियति है
सच्चा प्रेम
शायद कभी नहीं मिलता
किसी को भी नहीं मिलता
 
उनको भी नहीं
जो मेरे साये में
और
तुम्हारी गोद में
बसे हुए हैं
 
हाँ फिर भी
फिर भी
मुझ को
इंतज़ार रहेगा
तुम्हारे मिलन का
आजीवन!
 
 
 
 
 
 



 

6 comments:

  1. यशवंत जी ऐसा नहीं है कि सच्चा प्यार नहीं मिलता...मन में विश्वास होना चाहिए...बहुत ही प्यारी रचना है...अंतिम पंक्तियां बहुत अच्छी लगी...जो मजा इंतजार में है वो मिलन में कहां...

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  2. वीना जी,मेरा मानना है कि सच्चा प्यार सिर्फ एक माँ और शिशु को ही एक दूसरे से मिलता है.और जहाँ तक इस कविता में आसमान और धरती के प्रेम के चित्रण की बात है;आज प्रेम सिर्फ रूप के आकर्षण और धन पर केन्द्रित हो कर रह गया है.कितने लोग हैं जो इन चीज़ों से परे सच्चे प्रेम को तलाश कर पाते हैं.
    वैसे आप का कहना सही है कि मन में विश्वास होना चाहिए.

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  3. आदरणीया संगीता जी और माधव जी आप के उत्साहवर्धन के लिए शुक्रिया.

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  4. बहुत ही सुन्दर रचना...
    :-)

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