(शायद हाईस्कूल में महाकवि निराला की एक कविता पढ़ी थी-'वो तोडती पत्थर' वर्ष २००० में उसी से प्रेरित हो कर मैंने जो कविता लिखी थी उसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-)
पत्थर तोडती
'निराला' की नारी
अक्सर दिखती है
सड़क के किनारों पर
तपती दुपहरी में
कंपकपाती सर्द लहरों में
वर्षा ऋतु की
अलसाती धुप में
क्रूर कुटिल भेड़ियों की
परवाह किये बगैर
उस के अश्रुओं और
स्वेद की बूँदें
चोट करती हैं
काले पथरीले दिलों पर
और वो
मुस्कुराती है
समाज के सीने पर
उभर आई
खरोचों को देख कर
उस की किस्मत में जो था
वो झेल रही है
न जाने कब से
सदियों से
या,बरसों से
यूँ ही खुले आसमाँ के तले
फुटपाथों पर
अक्सर खेलती है
मौत से
मत कहो उसे
अबला या बेचारी
'निराली ' है 'निराला' से
'निराला' की नारी.
(जो मेरे मन ने कहा...)
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