रोज़ सुबह
मेरे घर के सामने से
जाते हैं स्कूल को
छोटे छोटे बच्चे
एक मीठी से मुस्कान होती है
उन के निश्छल चेहरे पर
और वो
अपनी नाज़ुक सी पीठ पर
चले जाते हैं
ज्ञान का बोझा ढोते हुए
हाँ!ज्ञान का बोझा ढोते हैं
ये प्यारे प्यारे बच्चे
वो ज्ञान
जो सिर्फ सिमटा हुआ है
बस्ते में रखी किताबों तक
वो ज्ञान
जो पार तो करा देगा
परीक्षा की नदी को
मगर क्या
पास करा देगा
जिंदगी के असली इम्तिहान में?
ये छोटे छोटे
प्यारे प्यारे बच्चे
जब खेलते हैं
हँसते हुए
कितने अच्छे लगते हैं
मगर जब रोते हैं
कम नंबर आने पर
जब पिटते हैं
अपने पालन हारों से
दिल कचोट जाता है
क्या यही बचपन है?
बिल्कुल सच है आज की शिक्षा व्यवस्था को देखते हुए यह सही है....बच्चों पर वो बोझ है जिसका अनावश्यक भार वो ढो रहे हैं।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना
आपकी कविता बहुत कुछ सोचने को मजबूर कर गयी.
ReplyDeleteआदरणीया वीना जी और संध्या जी,बहुत बहुत धन्यवाद.
ReplyDeleteआज बचपन पढ़ाई के बोझ तले दब गया है ... अच्छी विचारणीय रचना
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 29 -09 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में ...उगते सूरज ..उगते ख़्वाबों से दोस्ती
नई पुरानी हलचल से आपकी इस पोस्ट पर आना हुआ है.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर पोस्ट है आपकी.
बच्चों के प्रति संवेदनशीलता दर्शाती हुई.
सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार.
नवरात्रि की हार्दिक शुभकामनाएँ.
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है.
शायद आज यही रह गयी है बचपन की परिभाषा।
ReplyDeleteबहुत बढ़िया रचना
ReplyDelete