हम तो चले थे ख्वाबों में
खुद को ही ढूँढने
रूह मिली राह में पर
उसको पहचान ही न सके
ज़ख़्मी दिल में उठी हूक चुभीली सी इक
कब हुआ दर्द हम जान ही न सके।
रहबर से मिलन की ख़ुशी का समां
एक हो रहे थे ये ज़मीं आसमा
ज़मीं पे ज़नाज़ों की बहुत भीड़ थी
ज़मीं पे ज़नाज़ों की बहुत भीड़ थी
हम अपने ही ज़नाजे को पहचान न सके।
हम तो चले थे ख्वाबों में
खुद को ही ढूँढने
पर ख्वाबों से बाहर न आ ही सके
आह ले रहे थे खुछ लोग गम से सिहर कर
मगर हम तो दोज़ख का
मज़ा पा रहे थे।
-यशवन्त माथुर ©
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