[चित्र साभार:गूगल] |
रोज़ सुबह मैं
आसमां को ताका करता था
और देखा करता था
झुण्ड के झुण्ड
अनोखी आकृतियाँ बनाकर
उडती जाती चिड़ियों को
उनमे से कुछ आ जातीं
उतर आतीं
मेरे घर के हाते में
नीम्बू के पेड़ पर
दिन भर सुनातीं
अपना संगीत
जाड़े की धूप में
बाहर फैली हरी दूब पर
आपस में अठखेलियाँ करतीं
नन्हीं गौरय्या
कभी कभी मैं
शरारत में
किचन में जाकर
चावल के डब्बे में से ले आता
मट्ठी भर कर दाने
और बिखेर देता
बाहर
एक एक करके
ढेर सारी
चिड़ियाँ आकर के
चुगती एक एक दाना
और पल भर में फुर्र हो जातीं
लेकिन
अब न बचपन है
और न गौरय्या
शायद रूठ गयी है
गौरय्या
अब नज़र नहीं आती
गौरय्या
bahut badhiya...
ReplyDeleteवक्त के साथ सब बदल जाता है।
ReplyDeleteलेकिन
ReplyDeleteअब न बचपन है
और न गौरय्या
शायद रूठ गयी है
गौरय्या
अब नज़र नहीं आती
गौरय्या
......मन के कोने में दबी एक आवाज ...भूली बिसरी यादों के बीच ..कितना बदल जाता है सबकुछ वक्त के साथ..
सुन्दर चिंतनशील प्रस्तुति
यथार्थमय सुन्दर पोस्ट
ReplyDeleteकविता के साथ चित्र भी बहुत सुन्दर लगाया है.
सच में अब आँगन में फुदकने वाली गौरैया कहीं नज़र नहीं आती...... बहुत सुंदर
ReplyDeleteएक वरिष्ठ साहित्यकार ने आपसी बातचीत में कहा कि घरों में जाली लगा कर मच्छरों तक को तो रोक दिया है, गौरइया कहां से आए.
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना... पढ़कर अहसास हुआ कि शायद सच में रूठ गयी गौरय्या...
ReplyDeleteपर्यावरण ही बदल गया है ...आज कहाँ मिलती है गौरिया ..
ReplyDeleteपक्षियों की कई प्रजातियाँ लुप्त हो रही हैं.गौरैय्या का लुप्त होना भी उनमें से एक है.आपकी चिंता वाजिब है
ReplyDeleteसच में रूठ गयी गौरय्या...
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना...!!
बहुत सुंदर रचना, लेकिन यह चिडिया सच मे अब नही दिखाई देती, पहले तो हम तंग हो जाते थे इस के शोर से गर्मियो मे हमारे घर के रोशनदान मे जरुर इस का घोसला बनता था
ReplyDeleteइन पंक्तियों को पसंद करने के लिए आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद.
ReplyDelete@कविता जी आपने सच कहा...इन पंक्तियों में बिलकुल सच्ची बातों को अभिव्यक्त किया है.
सही लिखा है । पहले तो गौरैया ही हमें नींद से जगाती थी । अब मशीनी जीवन की तरह हम जागते भी अलार्म घड़ी से हैं ।
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