18 February 2011

पर्दा



[1]
अक्सर देखता हूँ 
घरों पर लटके पर्दों को 
कोशिश करता हूँ 
उस पार झाँकने की
रुक जाता हूँ 
बस कुछ  सोच कर
या  कहूँ कि
खुद को रोक लेता हूँ 

[2]
हर महल के बाहर 
हर झोपड़ी के बाहर 
एक पर्दा लटका है 
कुछ दिमागों पर
कुछ सोच पर 
पर्दा लटका है 
किसी की मजबूरी है 
खुद को ढांपने की 
कोई लक दक  
सजा  बैठा है 

[3]
बहुत अजीब है
पर्दों के आगे पीछे की दुनिया 
कोई छटपटा रहा है 
बाहर आने को 
कोई सो रहा है 
कोई तन्हा
बैठा है

[4]
एक पर्दा 
मैंने भी डाल रखा है
एक आवरण जैसा 
बना रखा है 
सोच रहा हूँ 
खुद को मुक्त कर लूं
तोड़ दूँ डोर 
जिसने इसे थाम रखा है
चाहता हूँ 
अब देख ही लूँ 
उन्मुक्त हो कर 
बाहर की  दुनिया को

[5]
मैं सिर्फ सोच रहा हूँ 
पर्दा हिल रहा है 
जैसे जाल में फंसा 
कोई पंछी 
फडफडा रहा हो

19 comments:

  1. जैसे जाल में फंसा
    कोई पंछी
    फडफडा रहा हो

    बहुत ही गहरी सोच वाली पंक्तियां
    पर्दा केवल पर्दा ही नही है हिजाब है...और वो आंखों का भी होता है..जब तक पर्दा है तभी तक शर्म है..जहां पर्दा हटा...सारी सच्चाई सामने...कुछ पर्दै रिश्तों में भी होते हैं जिनका होना बहुत जरूरी है...कुछ पर्दों का हमेशा गिरा रहना ही अच्छा होता है....
    बधाई...सुंदर कविता के लिए...

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  2. आदरणीया वीना जी,
    बहुत बहुत धन्यवाद.आपकी टिप्पणियों से मुझे मार्गदर्शन तो मिलता ही है मेरा मनोबल भी बढ़ता है.

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  3. parde par aapke vichar kavita ke roop me bahut hi sundar swaroop me vyakt ho rahe hain.badhai..

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  4. मैं सिर्फ सोच रहा हूँ
    पर्दा हिल रहा है
    जैसे जाल में फंसा
    कोई पंछी
    फडफडा रहा हो


    बहुत गहन चिंतन परदे के पीछे...बहुत सुन्दर

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  5. सारी क्षणिकाएॅ अच्छी है पर दूसरा वाला बेहतरीन है। आभार।

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  6. parda kabhi kabhi jaroori bhi hota hai .bahut achchhi prastuti .

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  7. कमाल की क्षणिकाएं हैं यशवंत जी.

    एक पर्दा
    मैंने भी डाल रखा है
    एक आवरण जैसा
    बना रखा है
    सोच रहा हूँ
    खुद को मुक्त कर लूं
    तोड़ दूँ डोर
    जिसने इसे थाम रखा है
    चाहता हूँ
    अब देख ही लूँ
    उन्मुक्त हो कर
    बाहर की दुनिया को
    ये तो बहुत दार्शनिक क्षणिका है, जीवन-मृत्यु से साक्षात्कार करवाती.

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  8. पर्दा हटा...सारी सच्चाई सामने..

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  9. बहुत सुन्दर क्षणिकाएं !

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  10. बहुत अजीब है
    पर्दों के आगे पीछे की दुनिया
    कोई छटपटा रहा है
    बाहर आने को
    कोई सो रहा है
    कोई तन्हा
    बैठा है

    बहुत सुंदर क्षणिकाएं रची हैं.....

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  11. her taraf ek parda hai ... aur mushkil hai uske piche ko jaan pana , parda bina soche samjhe hatana bhi mumkin nahi... hataya to piche ki zindagi ko jeena padta hai

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  12. पर्दे पर लिखी सारी क्सह्निकाएं एक चिंतन छोडती हैं ..अच्छी प्रस्तुति

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  13. यशवत जी आज की क्षणिकाये गहन चिन्तन का नतीजा हैं …………पर्दे के माध्यम से आईना दिखा दिया…………॥बेहद सशक्त रचना।
    एक इल्तिज़ा है अगर बुरा न लगे तो ये जो आपने साउंड लगा रखी है गाने की इसे हटा दें नही तो पढने मे ध्यान भटकता है ।

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  14. आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद.

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  15. प्रिय यशवन्त ,
    बहुत गहन मनन करने को प्रेरित करती हैं आपकी सोच । वस्तुत: इस
    परदे से कभी - कभी मनोबल बढता भी है , जो सच का सामना भी
    करा जाता है !

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  16. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 22- 02- 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.uchcharan.com/

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  17. पर्दा कहीं लाज का है , तो कही रुसवाई से बचने का अस्त्र ..
    परदे के पीछे और आगे की दुनिया को शब्दों ने कई रूप दे डाले !

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  18. मंगलवार 11/02/2014 को आपकी पोस्ट का लिंक होगा http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
    आप भी एक नज़र देखें
    धन्यवाद .... आभार ....

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