भ्रम की परतों को
देख रहा हूँ
एक एक कर उधड़ते हुए
बहुत गहरे दबा हुआ
कुचला हुआ
सड़ा-गला सच
बेचैन है
बाहर आने कोदूर से ही दिख रहे हैं
छिन्न भिन्न हो चुके
अस्थि पंजर
ऐसा लग रहा है
मानो निर्ममता पूर्वक
मारा गया हो
और फिर मन की
मिटटी खोद खोद कर
उसे दबा दिया गया हो
किसी कोने में
एक भूकंप सा चल रहा है
भ्रम की बुनियाद पर
टिका हुआ महल
खंड खंड हो रहा है
उधड़ती परतों के साथ
सच का कंकाल
बाहर आते ही
शायद जी उठेगा
फिर से.
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