आज विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर इस ब्लॉग पर पहले प्रकाशित इस कविता को पुनः प्रस्तुत कर रहा हूँ .
(1)
सिगरेट! अगर तू न होती
तो बच जाता मैं भी
बगल वाले नेता जी के
मुहं से निकलने वाले
अजीब से
धुंए से
जो मुश्किल कर देता है
जाड़े की गुनगुनी धूप में
दो पल का मेरा बैठना
(2)
सिगरेट! अगर तू न होती
तो कितने ही
कैंसर न पनपते
झोपड़ियों और महलों में
रहने वाले
न रोते,न कलपते
पर तू है!
और तेरा आस्तित्व भी है
कहीं दो कहीं पचास और सौ रुपये में
तू छीन लेती है ईमान
नए किशोरों का
जो भटक जाते हैं
तेरे छलावे में
काश! के कुछ होठों पे
नयी मुस्कान होती
सिगरेट! अगर तू न होती
(1)
सिगरेट! अगर तू न होती
तो बच जाता मैं भी
बगल वाले नेता जी के
मुहं से निकलने वाले
अजीब से
धुंए से
जो मुश्किल कर देता है
जाड़े की गुनगुनी धूप में
दो पल का मेरा बैठना
(2)
सिगरेट! अगर तू न होती
तो कितने ही
कैंसर न पनपते
झोपड़ियों और महलों में
रहने वाले
न रोते,न कलपते
पर तू है!
और तेरा आस्तित्व भी है
कहीं दो कहीं पचास और सौ रुपये में
तू छीन लेती है ईमान
नए किशोरों का
जो भटक जाते हैं
तेरे छलावे में
काश! के कुछ होठों पे
नयी मुस्कान होती
सिगरेट! अगर तू न होती