सिर्फ स्वप्न हैं
अनगिनत
आशाओं का
एक अजब सा
माया जाल है
हर तरफ
भागमभाग है-
आगे बढने की
कभी खुद की इच्छा से
खुद के बल से
और कभी
किसी को जबरन
धकेल कर
किसी 'सीधे' को
मोहपाश मे बांध कर
तेज़ी से
ऊपर की मंज़िल पर
चढ़ने की
बिना कोई सबक लिए
कछुआ और खरगोश की
कहानी से।
इस मायाजाल से
मैं रहना चाहता हूँ दूर
खड़े रहना चाहता हूँ
पैरों को ज़मीन से टिकाए
क्योंकि
ऊपर की मंज़िल के
सँकरेपन का आभास है
डर है
ऊपर से पैर फिसला
तो आ न सकूँगा
ज़मीन पर।
अनगिनत
आशाओं का
एक अजब सा
माया जाल है
हर तरफ
भागमभाग है-
आगे बढने की
कभी खुद की इच्छा से
खुद के बल से
और कभी
किसी को जबरन
धकेल कर
किसी 'सीधे' को
मोहपाश मे बांध कर
तेज़ी से
ऊपर की मंज़िल पर
चढ़ने की
बिना कोई सबक लिए
कछुआ और खरगोश की
कहानी से।
इस मायाजाल से
मैं रहना चाहता हूँ दूर
खड़े रहना चाहता हूँ
पैरों को ज़मीन से टिकाए
क्योंकि
ऊपर की मंज़िल के
सँकरेपन का आभास है
डर है
ऊपर से पैर फिसला
तो आ न सकूँगा
ज़मीन पर।
bilkul apni si lagi ye kavita.. :)
ReplyDeleteइस मायाजाल से
ReplyDeleteमैं रहना चाहता हूँ दूर
खड़े रहना चाहता हूँ
पैरों को ज़मीन से टिकाए
क्योंकि
ऊपर की मंज़िल के
सँकरेपन का आभास है ... abhaas hai to phir chinta kaisi ... maya ke mohak van se bache rahenge , bas dil ko majboot rakhna hai
हर ह्रदय में सहज रूप से उठती भावनाओं को शब्द दे दिया है .सोच को जगाती रचना .फैसला को जरा देख लेंगे. शुभकामना
ReplyDeleteइस मायाजाल से
ReplyDeleteमैं रहना चाहता हूँ दूर
खड़े रहना चाहता हूँ
पैरों को ज़मीन से टिकाए
क्योंकि
ऊपर की मंज़िल के
सँकरेपन का आभास है ...बहुत सुन्दर भावों से सजाए हैं अपनी रचना को ..खुबसूरत प्रस्तुति...
वाह ...बहुत ही अच्छी रचना ।
ReplyDeletebahot sundar...bahot khaaass...
ReplyDeleteसही है इस मायाजाल से दूर ही रहना।
ReplyDeleteसुंदर भाव
शुभकामनाएं
एहसास बेहतर ढंग से शब्दों में पिरोया है ....
ReplyDeleteसंकरेपन का एहसास ही ज़मीन से जोड़े रहेगा ..सुन्दर भाव
ReplyDeleteभिक्षाटन करता फिरे, परहित चर्चाकार |
ReplyDeleteइक रचना पाई इधर, धन्य हुआ आभार ||
http://charchamanch.blogspot.com/
वाह कितनी गहरी और सटीक बात कही है।
ReplyDeleteदिल को छु गयी रचना...
ReplyDeletebhaut hi touching hai rachna...
ReplyDeleteऊपर की मंज़िल के
ReplyDeleteसँकरेपन का आभास है
डर है
ऊपर से पैर फैसला
तो आ न सकूँगा
ज़मीन पर।
क्या बात है....सुन्दर
इस मायाजाल से
ReplyDeleteमैं रहना चाहता हूँ दूर
खड़े रहना चाहता हूँ
पैरों को ज़मीन से टिकाए
क्योंकि
ऊपर की मंज़िल के
सँकरेपन का आभास है
बहुत बढ़िया ..... कमाल की सोच...
कुछ भी हो कदम जमीं पर ही रहने चाहिए...बहुत खूबसूरत...
ReplyDeleteसही सोच ...
ReplyDeleteसार्थक सन्देश !
सुन्दर रचना,
ReplyDeleteआप के कवि मन ने कविता के अगले पड़ाव की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया है यशवंत भाई :) बधाई
ReplyDeleteबहुत सुन्दर...बधाई
ReplyDeleteयशवंत भाई
ReplyDeleteनमस्कार!
कोमल भावों से सजी ....दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
बहुत खूबसूरत......इस दौड़ से जितना बच सको उतना बढ़िया.........खुश है वो जो पीछे खड़ा रहने को राज़ी है|
ReplyDeleteबेहद गहरे अर्थों को समेटती खूबसूरत रचना. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.
सदैव हौसले बुलंद हो , तो आगे बढ़ने में मजा ही मजा है ! बहुत सुन्दर
ReplyDeleteरचना चर्चा मंच पर है आज ||
ReplyDeleteइस मायाजाल से
ReplyDeleteमैं रहना चाहता हूँ दूर
खड़े रहना चाहता हूँ
पैरों को ज़मीन से टिकाए ....
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
सादर शुभकामनाएं...
aaj pahli bar aapke blog par aaya hun ..bahut achchha lga
ReplyDeleteऊपर की मंज़िल के
ReplyDeleteसँकरेपन का आभास है
डर है
ऊपर से पैर फिसला
तो आ न सकूँगा
ज़मीन पर।
बहुत ही बढ़िया .
sachchai byan karti rachna...
ReplyDeletegreat message n intense thoughts..
ReplyDeletebrilliantly written
Loved it as always :)
जीवन के चक्रव्यूह को सरल सहज भाव से चित्रित कर दिया....
ReplyDeleteबहुत खूब - बहुत सुंदर
ReplyDeleteचर्चा में आज नई पुरानी हलचल
ReplyDeleteउम्दा सोच
ReplyDeleteभावमय करते शब्दों के साथ गजब का लेखन ...आभार
माया जाल से बाहर आना ही पुरुषार्थ है ...
ReplyDeletebahut hi satik bat
ReplyDelete