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(Photo curtsy:Google image search) |
कागज के किरचों की तरह
कभी कभी
बिखरता है मन
उड़ता जाता है
कितनी ही ऊंचाइयों को
छूता जाता है
हवा की लहरों के संग
कितने ही सँकरे
तीखे मोड़ों से गुज़र कर
टुकड़ा टुकड़ा टकरा कर आपस मे
छू लेता है ज़मीन को
थक हार कर
बेबस मन...
कागज के किरचों की तरह!
सुन्दर पंक्तियाँ
ReplyDeleteमन के भावों को दर्शाती बहुत ही शानदार कविता ..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति है
ReplyDeleteबहत भावपूर्ण प्रस्तुति..
ReplyDeleteअत्यंत सहज और मनोभाव को दर्शाती प्रस्तुति...
ReplyDeletevery nice ......
ReplyDeleteमन बिखरता है... पर पुनः क्षीण होती शक्तियों को समेट नए क्षितिज की ओर निकल भी तो पड़ता है!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteSach hi to h... lakh koshish kar le udne ki.. koi kheench hi leta h ise wapas zameen pe..
ReplyDeleteकितना भी उड़ ले पर वापस जमीन पर आ जाता है ... बहुत सुंदर भाव
ReplyDeletewah kya baat hai...kagaz ke jariye mann ko badi sahajta se pravahit kiya hai yashwantji....
ReplyDeletewww.poeticprakash.com
वाह.... यशवंत बेहतरीन , उम्दा काव्य शुभकामनाएं
ReplyDeleteसुभानाल्लाह.........बहुत खुबसूरत.........मन की भटकन को बहुत सुन्दरता से शब्द दिए हैं आपने.......हैट्स ऑफ इसके लिए|
ReplyDeleteमन और कागज़ की किरचें। बहुत खूब यशवंत भाई।
ReplyDeleteथक हार कर
ReplyDeleteबेबस मन...
कागज के किरचों की तरह!बेहद खुबसूरत....
कागज के किरचों की तरह
ReplyDeleteकभी कभी
बिखरता है मन
उड़ता जाता है
कितनी ही ऊंचाइयों को
छूता जाता है
हवा की लहरों के संग
कितने ही सँकरे
तीखे मोड़ों से गुज़र कर
टुकड़ा टुकड़ा टकरा कर आपस मे
छू लेता है ज़मीन को
थक हार कर
बेबस मन...
कागज के किरचों की तरह!
और फिर उभरते हैं उसमें कुछ अक्षर...
कुछ सीधे-साधे,कुछ टेढ़े-मेढ़े
और फिर कागज की किरचें जुड़ने लगती हैं
और कुछ ऐसी ही रचना आकार ले लेती है....
स्वतः ही..........!!
behreen rachna....
ReplyDeleteवाह ...बहुत ही बढि़या ।
ReplyDeleteबेबस मन कागज़ की किरचों की तरह, फिर जुड़ती किरचें और आकार लेती रचना ... बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteकागज की किरचें तो नहीं सुनीं थीं कांच की किरचें और कागज की कतरनें या चिन्दियाँ... लेकिन मन के स्वभाव को बहुत गहराई से समेटा है कविता में...
ReplyDeleteबेजोड़ रचना...कागज़ की किरचें...नया प्रयोग है
ReplyDeleteनीरज
सुन्दर अभिव्यक्ति ...
ReplyDeleteकागज के किरचों की तरह
ReplyDeleteकभी कभी
बिखरता है मन... समेटते हुए कितना कुछ दरकता जाता है !
कागज़ कि किरचें ..अनुपम कल्पना ..मन कि बेबसी का बयां ...बहुत खूब यशवंत जी ...शुभ कामनाएँ !!!
ReplyDeleteबिखरता है मन
ReplyDeleteउड़ता जाता है
कितनी ही ऊंचाइयों को
छूता जाता है
हवा की लहरों के संग
bahut hi khoob
aunder bimb
rachana
बहुत ही सुन्दर....बेजोड़ कविता ..
ReplyDeleteकल 19/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
भावुक कर गई आपकी रचना ... मन की गहराई से लिखा है ...
ReplyDeleteबड़ा ही बेबस हो जाते हैं हम और हमारा यह मन कभी कभी..
ReplyDeleteसमानता बहुत है उन उड़ते हुए कागज़ों और इस बेबस मन में..
कभी कभी
ReplyDeleteबिखरता है मन
उड़ता जाता है
कितनी ही ऊंचाइयों को
छूता जाता है.
वास्तव में मन हमं बेबस बना देता है।अच्छी रचना।
short but intense..
ReplyDeletelovely read !!
बस,दिशा देने की ज़रूरत है मन को।
ReplyDeleteबहत सुन्दर कल्पना...सुन्दर और भावमयी अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteबहुत बढि़या।
ReplyDeleteअच्छी रचना सुंदर पोस्ट,बधाई ....
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