16 October 2011

बेबस मन.....

(Photo curtsy:Google image search)










कागज के किरचों की तरह 
कभी कभी
बिखरता है मन
उड़ता जाता है
कितनी ही ऊंचाइयों को
छूता जाता है
हवा की लहरों के संग
कितने ही सँकरे
तीखे मोड़ों से गुज़र कर
टुकड़ा टुकड़ा टकरा कर आपस मे
छू लेता है ज़मीन को
थक हार कर
बेबस मन...
कागज के किरचों की तरह!

35 comments:

  1. सुन्दर पंक्तियाँ

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  2. मन के भावों को दर्शाती बहुत ही शानदार कविता ..

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  3. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति है

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  4. बहत भावपूर्ण प्रस्तुति..

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  5. अत्यंत सहज और मनोभाव को दर्शाती प्रस्तुति...

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  6. मन बिखरता है... पर पुनः क्षीण होती शक्तियों को समेट नए क्षितिज की ओर निकल भी तो पड़ता है!

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  7. Sach hi to h... lakh koshish kar le udne ki.. koi kheench hi leta h ise wapas zameen pe..

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  8. कितना भी उड़ ले पर वापस जमीन पर आ जाता है ... बहुत सुंदर भाव

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  9. wah kya baat hai...kagaz ke jariye mann ko badi sahajta se pravahit kiya hai yashwantji....

    www.poeticprakash.com

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  10. वाह.... यशवंत बेहतरीन , उम्दा काव्य शुभकामनाएं

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  11. सुभानाल्लाह.........बहुत खुबसूरत.........मन की भटकन को बहुत सुन्दरता से शब्द दिए हैं आपने.......हैट्स ऑफ इसके लिए|

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  12. मन और कागज़ की किरचें। बहुत खूब यशवंत भाई।

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  13. थक हार कर
    बेबस मन...
    कागज के किरचों की तरह!बेहद खुबसूरत....

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  14. कागज के किरचों की तरह
    कभी कभी
    बिखरता है मन
    उड़ता जाता है
    कितनी ही ऊंचाइयों को
    छूता जाता है
    हवा की लहरों के संग
    कितने ही सँकरे
    तीखे मोड़ों से गुज़र कर
    टुकड़ा टुकड़ा टकरा कर आपस मे
    छू लेता है ज़मीन को
    थक हार कर
    बेबस मन...
    कागज के किरचों की तरह!


    और फिर उभरते हैं उसमें कुछ अक्षर...
    कुछ सीधे-साधे,कुछ टेढ़े-मेढ़े
    और फिर कागज की किरचें जुड़ने लगती हैं
    और कुछ ऐसी ही रचना आकार ले लेती है....
    स्वतः ही..........!!

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  15. वाह ...बहुत ही बढि़या ।

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  16. बेबस मन कागज़ की किरचों की तरह, फिर जुड़ती किरचें और आकार लेती रचना ... बहुत सुन्दर रचना

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  17. कागज की किरचें तो नहीं सुनीं थीं कांच की किरचें और कागज की कतरनें या चिन्दियाँ... लेकिन मन के स्वभाव को बहुत गहराई से समेटा है कविता में...

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  18. बेजोड़ रचना...कागज़ की किरचें...नया प्रयोग है

    नीरज

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  19. सुन्दर अभिव्यक्ति ...

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  20. कागज के किरचों की तरह
    कभी कभी
    बिखरता है मन... समेटते हुए कितना कुछ दरकता जाता है !

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  21. कागज़ कि किरचें ..अनुपम कल्पना ..मन कि बेबसी का बयां ...बहुत खूब यशवंत जी ...शुभ कामनाएँ !!!

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  22. बिखरता है मन
    उड़ता जाता है
    कितनी ही ऊंचाइयों को
    छूता जाता है
    हवा की लहरों के संग
    bahut hi khoob
    aunder bimb
    rachana

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  23. बहुत ही सुन्दर....बेजोड़ कविता ..

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  24. कल 19/10/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  25. भावुक कर गई आपकी रचना ... मन की गहराई से लिखा है ...

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  26. बड़ा ही बेबस हो जाते हैं हम और हमारा यह मन कभी कभी..
    समानता बहुत है उन उड़ते हुए कागज़ों और इस बेबस मन में..

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  27. कभी कभी
    बिखरता है मन
    उड़ता जाता है
    कितनी ही ऊंचाइयों को
    छूता जाता है.
    वास्तव में मन हमं बेबस बना देता है।अच्छी रचना।

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  28. short but intense..
    lovely read !!

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  29. बस,दिशा देने की ज़रूरत है मन को।

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  30. बहत सुन्दर कल्पना...सुन्दर और भावमयी अभिव्यक्ति..

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  31. बहुत बढि़या।

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  32. अच्छी रचना सुंदर पोस्ट,बधाई ....

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