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25 December 2011

अंकल सेंटा नहीं जाना (बाल कविता )

आप सभी को क्रिसमस की ढेर सारी बधाइयाँ। इस अवसर पर प्रस्तुत है बाल कविता लिखने का मेरा पहला प्रयास-


दूर देश से आ कर के
झोली भर खुशियाँ दे जाना
अबकी बार जो आए तो
अंकल सेंटा नहीं जाना।
(चित्र:साभार गूगल इमेज सर्च )

ज़िंगल बेल्स की प्यारी धुन 
और क्रिसमस ट्री सजा हुआ है
दुनिया का कोना कोना 
स्वप्नलोक सा बना हुआ है।

नहीं रहे कहीं जात धर्म
रंगभेद दूर हटा जाना
गुरबत मे जीने वालों को
एक नयी राह दिखा जाना।

हम मानव हैं मानव बनें 
माँ बहनों का सम्मान करें 
मिलजुल रहें दुनिया के वासी
नहीं खुद पर अभिमान करें। 

और कुछ चाहिये नहीं हमको
बस संकल्प नेक करा जाना
और जब तक कोई समझ सके ना
अंकल सेंटा नहीं जाना।

~यशवन्त यश ©  

19 December 2011

जिंदगी के मेलों में.......

जिंदगी के मेलों में, मैं देख रहा हूँ तमाशे
कहीं ठेलों पर बिकती चाट, और कहीं पानी बताशे *

खट्टा सा है स्वाद खुशी का ,कहीं गम मीठे लगते हैं
जलजीरे मे कभी मिठास, कभी शर्बत तीखे लगते हैं

पीना है फिर जीना है,जी जी का जंजाल हुआ
इससे पहले कभी न जाना ,लंगोटिया और कंगाल हुआ

जीवन की इन रेलों में ,बड़े अजीब से मेलों में
सबको हँसते देखा है,जब जोकर भी रो देता है। 

-----
*गोलगप्पे

16 December 2011

तकिया कलाम

कहते हैं खाली दिमाग शैतान का घर होता है और जब शैतान सिर पर सवार हो जाए तो बचना मुश्किल होता है। इसी मनः स्थिति मे लिखी गयी बे सिर पैर की यह पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं--

एक शब्द
जो अक्सर
रह रह कर
आता रहता है
जुबां पर
कभी जाने
कभी अनजाने
हर देश, काल
परिस्थिति मे
सिद्ध करता हुआ
अपनी सार्वभौमिकता
उम्र और रिश्तों के
शिष्टाचार को तोड़ता हुआ
हर बंधन से स्वतंत्र
हर प्रतिक्रिया की
क्रिया में
अदृश्य रूप मे सदृश्य
कभी कारण
कभी अकारण
उस एक शब्द को
जिसे चाहता है
हर खास ओ आम
कहलाता है
तकिया कलाम :)

13 December 2011

मकान

बन रहा है
एक मकान
मेरे घर के सामने
ईंट ईंट जोड़कर
दो नहीं
तीन मंज़िला
सुंदर सा मकान
जिसके तीखे नयन नक्श  पर
फिदा हो जाए 
देखते ही कोई भी
मगर मौका नहीं किसी को
कि भीतर झांक भी ले
सूरज की किरणें हों
या चाँद की चाँदनी
कंक्रीट की छत
कर रही है
हर ओर पहरेदारी
मुख्य द्वार से
भीतर तक

मुझे पता है
आने वाले हैं
कुछ दिन में
ए सी
करने वाले हैं
स्थायी गठबंधन
दीवारों से
मंद मंद हवा  के साथ
रूम फ्रेशनर की
भीनी भीनी खुशबू
भीतर से बाहर तक महकेगी
क्योंकि
घर के बाहर लगा
हरसिंगार का पेड़
हो गया है
अतीत की बात

आज उस मकान पर
टंग  गया है
काला सा डरावना मुखौटा
ठीक वैसे ही
जैसे शिशु के माथे पर
काला काजल
लगाया जाता है
मेरे जैसी
बुरी नज़रों से बचने को !


(कल्पना पर आधारित )

10 December 2011

माटी की याद .....

विदेश में प्रवास कर रहीं अपनी एक फेसबुक और ब्लॉगर मित्र से चैट पर बात करने के बाद लिखी गयी यह पंक्तियाँ उनको और सभी प्रवासी भारतियों को समर्पित कर रहा हूँ---
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अपनी माटी की
सोंधी सी महक से
मीलों दूर
अपने सपनों की धरती पर
उड़न खटोले से
आ उतरने के बाद
मैंने कोशिश तो बहुत की
कि भूल जाऊं
उन तंग गलियों को
छुटपन मे भाग  भाग कर
जिनमे खेला करता था

कोशिश तो बहुत की
कि भूल जाऊं
गली के उस पार
काका की
कोने वाली दुकान को
जहाँ मैं लेता था स्वाद
गरम गरम जलेबी का
और अक्सर
झगड़ता था उनसे
100 ग्राम तौलने के बाद भी
एक जलेबी और
बढ़ा कर देने को

कोशिश तो बहुत की
कि भूल जाऊं
उस स्कूल को
जिसने दिया एक आधार
इस मुकाम तक आने का

कोशिश तो बहुत की
कि भूल जाऊं
घर घर मे खिलने वाले
देसी लाल गुलाब की
मादक खुशबू को

मगर न चाह कर भी
बे इंतिहा
आ रही है याद 
अपनी उसी माटी की
जहां अब भी
मेरे अपनों के बीच
कहीं छुपा बैठा है
मेरा दिल

भीगती आँखों से
गिरते आंसुओं मे
तैर रहा है अक्स
'काबुलीवाला'  का

मजबूरी के पिंजरे मे
कैद हो कर
गुनगुना रहा है
मेरा तन और मन-

'ऐ मेरे प्यारे वतन
ए मेरे बिछुड़े चमन 
तुझ पे दिल कुर्बान !'

07 December 2011

परिवर्तन हो कर रहेगा

 17 मार्च 2011 को लिखी गयी यह पंक्तियाँ ड्राफ्ट की कैद से आज़ाद हो कर अब आपके सामने हैं-

वो कहते हैं
भूल जाओ जन को
क्या होगा
उनकी
आवाज़ बन कर
तुम जिन को
सुनाना चाहते हो
और जिन की
कहना चाहते हो
वो नहीं सुन रहे
तुम्हारी
उलटे हंस रहे हैं
तुम्हारे
बड़बोलेपन पर
तुम्हारी सोच पर
शायद एक
नवीन सोच!
माना  कि
सार्थक है
माना  कि
परिवर्तन हो सकता है
किन्तु कैसे ?

मैं कहता हूँ
परिवर्तन हो सकता है
हो कर रहेगा
यदि
मैं चाहूँ तो
यदि
तुम चाहो तो
यदि
हम चाहें तो
कोई माने
न माने
तुम मानो
न मानो
अगर यह
बड़बोलापन है
तो मैं बोलूँगा
बोलता रहूँगा
कोई एक तो होगा
इस भीड़ में
मुझ को सुनने वाला
समझने वाला
मेरी राहों पर
मेरे साथ चलने वाला
एक एक करके
बन जाएगा रेला
देर से ही सही
मेरी बात पहुंचेगी
सबके कानों तक
और तब
तुम भी आओगे
मेरा हाथ थामने
सहगामी  बनने
स्वीकारोगे 
परिवर्तन को
जो हो चुकेगा
तब तक.

04 December 2011

जाना तो होगा ही

जाना तो होगा ही
आज नहीं तो कल
एक दिन
एक हल्की सी आहट
बुलावे की
और फिर
दीवार पर टंगी
किसी तस्वीर की जगह
पाना खुद को होगा ही
जाना तो होगा ही

जाना तो होगा ही
मैं चाहूँ न चाहूँ
तुम चाहो न चाहो
शायद पहले मैं
या मुझ से पहले तुम
कितनी ही क्यों न हो अंतरंगता
एक दिन
टूट कर 
बिखरना तो होगा ही

जाना तो होगा ही ।

01 December 2011

'अनजाना' और 'पार' (मम्मी की दो कविताएं)

 आज प्रस्तुत हैं मम्मी की लिखी दो नयी कविताएं --


(श्रीमती पूनम माथुर )
अनजाना

पुराना था एक सपना
उसमे झलका अपना
कब होगा उसका आना
कब होगा मेरा जाना

आयेगा एक मस्ताना
उसको बना देगा दीवाना
यह है उसका अफसाना
कौन है वह अनजाना
         *

पार

बढ़ना था
चढ़ना था
गिरना था
उठना था
प्यार था
झगड़ा था    
सबेरा था
साँझ था
हौसला था
घोंसला था
भूत था
वर्तमान था
भविष्य था
मझधार था
उतरना था
नाव था
माझी था
फासला था
दूर था
जाना था
पार ।

28 November 2011

ड्राफ्ट

कितना अजीब सा होता है
एडिट मोड
जहां पूरा होने का
इंतज़ार करते मिलते हैं
कुछ सिमटे से
अधूरे ड्राफ्ट
ठीक वैसे ही
जैसे पिंजरे में कैद
कोई पंछी
फड़फड़ा रहा हो  
खुली हवा मे उड़ने को

दो दो तीन तीन लाइन के  
ढेर सारे ड्राफ्ट
जिन पर
अक्सर चली जाती है 
मेरी उछ्टती सी निगाह
लेकर
एक हल्की सी मुस्कान
देता हूँ
मौन दिलासा--

'चिंता मत करो
तुम डिलीट नहीं होगे
तुमको छपना है
अंश बनना है
आने वाली
किसी पोस्ट का'

आश्वस्ति सा भाव लिये
बेचारा ड्राफ्ट
रह जाता है कैद
एडिट मोड में

और न्यू पोस्ट पर
क्लिक करते ही
बजने लगता है
की बोर्ड का राग

नयी पोस्ट बन कर
पब्लिश भी हो जाती है
और ड्राफ्ट ....?
उसे करना है
अभी कुछ और
इंतज़ार  !



24 November 2011

अजीब से ख्याल

बहुत से ख्याल हमारे मन मे अक्सर आते हैं । यह पंक्तियाँ एक कोशिश है उन लोगों के मन की बात कहने की जो सोचते तो बहुत कुछ हैं और कहते भी हैं पर लिखते नहीं है। अरे आप कोशिश तो कीजिये अपने मन की बातों को शब्द देने की कहीं न कहीं कोई न कोई आपकी बातें ज़रूर पसंद करेगा।

अजीब से ख्याल

कभी सोते मे
सपनों के सतरंगी समुंदर मे
कभी कुछ कहते हुए
कभी कुछ सुनते हुए
किसी को हँसते देख कर
गम से रोते देख कर
कलियों को खिलते देख कर
मुरझाए फूलों को देख कर
हँसते शिशुओं को देख कर 
सड़क पर चलते हुए
हवा मे उड़ते हुए
कहीं काम पर पसीना बहाते
मजदूरों को देख कर
शीत लहरी मे ठिठुरते हुए
मांस के पुतलों को देख कर
और न जाने कब कब
वक़्त बे वक़्त
कुछ ख्याल
अक्सर मन मे आते हैं

ख्याल मन मे आते हैं
कि कुछ कहूँ
किसी से बातें करूँ
उन ख्यालों को बयां करूँ

आस पास कुछ लोग हैं -
डरता हूँ मेरे अजीब से
ख्यालों को सुन कर
वो हँस न दें
कर न दें शर्मिंदा
पर आखिर मैं क्यों चुप रहूँ
क्यों न कहूँ अपने मन की
जो अब तक दबी हुई है
कहीं किसी कोने मे
मन अकुला रहा है
जैसे जाल मे फंस कर
कोई पंछी तड्फड़ा रहा हो
मुक्ति पाने को

पर ये ख्याल
ये ख्याल सच मे
बहुत अजीब होते हैं
इन ख्यालों को
लिख देना चाहता हूँ
कह देना चाहता हूँ
उन से
जो इन ख्यालों का
ख्याल रखते हों :)
दिल से !

22 November 2011

ज़मीन जैसा हूँ......

आईने मे आज फिर
अपना चेहरा देखा
कल किसी ने
इसे बेदाग कहा था
और मुझे घेर दिया था
गहरी सोच मे
क्या यह सचमुच बेदाग है?
क्या बदलते वक़्त के साथ
बीतती उम्र के साथ
वही कोमलता बाकी है?
नहीं!
नहीं हूँ मैं बे दाग
तमाम चोटों के
खरोचों के निशान
इसकी गवाही दे रहे हैं ।

खुद को ज़मीन जैसा पाता हूँ मैं
अपने पैरों तले
जिसे कुचल कर
चोटें दे देकर
वक़्त बढ़ता चला जा रहा है
चलता चला जा रहा है
अपनी राह

उम्र के बढ्ने के साथ
पुराने होते चोटों के निशान
अब भी दिख रहे हैं
आईने मे
और आने वाली चोटें
तलाश रही हैं अपनी जगह
मेरे चेहरे पर !

16 November 2011

मेरा इंतज़ार

जंगली धूप और
मरघटी रातों मे
अनजान गलियों की ,
सुनसान  सड़कों पर
अकेले चलते हुए
मैंने देखा -
हर मोड़ पर कर रहे थे
मेरा इंतज़ार
वक़्त के
अदृश्य पहरेदार!

14 November 2011

बाल दिवस की शुभकामनाएँ!

मेरी छोटी सी कज़िन वंशिका को तो आप जानते ही हैं लीजिये आज बाल दिवस पर फिर से देखिये उनकी कुछ ड्राइंग्स--











10 November 2011

मोड़

कल जहां था
आज फिर
आ खड़ा हूँ उसी मोड़ पर
जिससे हो कर
कभी गुज़रा था
भूल जाने की
तमन्ना ले कर

उस मोड़ पर
सब कुछ
बिल्कुल वैसा ही है
जैसा पहले था
कुछ बदला तो सिर्फ
वक़्त बदला
और उम्र बदली
और फिर वही मोड़ ....आखिर क्यों?

यह दोहराव....अचानक !
क्या सिर्फ मेरे साथ है?
या दोहराव होता है
कभी न कभी
सबके साथ ?
जब मिल जाता है
यूं ही ...
कोई भूला बिसरा मोड़
जिससे होकर गुजरना ही है
क्योंकि
न कोई विकल्प
और न कोई और
रास्ता ही है
इस एक मोड़ के सिवा।


08 November 2011

सुपर स्टार

सड़क से गुजरते हुए
किनारे बसी
मजदूरों की झोपड़ियों के बाहर
मैंने देखा उसे
बड़े ही ध्यान से
वो तल्लीन था
उस किताब मे
और दोहराता जा रहा था
एक कविता -
'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार'
शायद
उस गुदड़ी के लाल को
एहसास नहीं था
खुद के सुपर स्टार होने का।

05 November 2011

मौसम और मन .....

कभी धूप
कभी छाँव
कभी गर्मी
कभी ठंड
कभी बरसात
कभी बसंत
बदलता है मौसम
पल पल रंग।

मन भी तो ऐसा ही है
बिलकुल मौसम जैसा
पल पल बदलता हुआ
कभी अनुराग रखता है
प्रेम मे पिघलता है
और कभी
जलता है
द्वेष की गर्मी मे।

ठंड मे ठिठुरता है
किटकिटाता है
क्या हो रहा है-
सही या गलत
समझ नहीं पाता है
जम सा जाता है मन
पानी के ऊपर तैरती
बरफ की सिल्ली की तरह ।

मन!
जब बरसता है
बेहिसाब बरसता ही
चला जाता है
बे परवाह हो कर
अपनी सोच मे
अपने विचारों मे
खुद तो भीगता ही है
सबको भिगोता भी है
जैसे पहले से ही
निश्चय कर के निकला हो
बिना छाते के घर से बाहर ।

बसंत जैसा मन !
हर पल खुशनुमा सा
एक अलग ही एहसास लिये
कुछ कहता है
अपने मन की बातें करता है
मंद हवा मे झूमता है
इठलाता है
खेतों मे मुसकुराते
सरसों के फूलों मे
जैसे देख रहा हो
अपना अक्स।

मौसम और मन
कितनी समानता है
एकरूपता है
भूकंप के जैसी
सुनामियों के जैसी
ज्वालामुखियों के जैसी
और कभी
बिलकुल शांत
आराम की मुद्रा मे
लेटी हुई धरती के जैसी

~यशवन्त माथुर©

01 November 2011

दुनिया गोल है (Post Number -250)

 (इस टाइमपास पोस्ट की शुरू की आठ लाइने  फेसबुक स्टेटस मे देने के लिए लिखी थी लेकिन बढ़ते बढ़ते यह इस ब्लॉग की 250 वीं पोस्ट बन कर यहाँ प्रस्तुत हैं। )


दुनिया गोल है
हम जहां से चलते हैं
वापस वहीं पर आना ही होता है
ठीक वैसे ही
जैसे दिन की शुरुआत
फेसबुक और ब्लॉग से होती है
और दिन का अंत भी
इसी को देखते हुए होता है

मन भटकता है कभी कभी
कुछ सोच कुछ ख्याल
की बोर्ड की
कभी मंथर कभी तेज़ गति से
स्क्रीन पर उतर आते हैं
स्याही से-
कागज़ के गंदे होने का
डायरी के भरने का
किसी काट पीट
ओवर राइटिंग का
कोई झंझट ही नहीं
सब कुछ साफ -
बेदाग सा नज़र आता है

लेकिन जब
होने लगता है
पलकों मे दर्द
चटकती हैं उँगलियाँ

चैट पर-
किसी के हैलो लिखते ही
वो थकान भी दूर हो जाती है
नए सिरे  से ऊर्जा
और गति मिल जाती है
की बोर्ड को

ठीक वैसे ही
जैसे दिन की शुरुआत के समय थी
फेसबुक और ब्लॉग पर । 

आखिर दुनिया गोल जो है :)

29 October 2011

तलाश मे हूँ......

उस वक़्त की तलाश मे हूँ
जिस वक़्त -
वक़्त तलाश लेगा
खुद को
किसी मानव रूप मे  
और
उसकी उंगली पकड़ कर
मैं चलने की
कोशिश करूंगा
आगे की ओर
भूल कर
अपने
पिछले कदमों के निशां !

26 October 2011

अंधेरा या सवेरा....?

वो जो सामने की
झोपड्पट्टी के बाहर
जलते दीयों की
रोशनी दिखाई दे रही है
उसके भीतर घना अंधेरा है 
और उस अंधेरे मे
कोई जल रहा है

और वहाँ
उस झोपड्पट्टी के आखिरी छोर पर
दूधिया रोशनी मे नहाए
रईसों के आलीशान महल
जो बाहर से दमक रहे हैं
उनके भीतर भी
घना अंधेरा है
और उस अंधेरे मे
कोई कुरेद रहा है
अतीत के ज़ख़्मों को

काले आसमान को चीरती
ये मावस की उजली रात
रह रह कर गूँजती है
आतिशबाज़ी से
पड़वा की पौ फटने तक

इस क्षणिक उजियारे मे
मीलों दूर तक घना अंधेरा है
जिसमे तन्हा हो कर
कोई तलाश रहा है
अपने अस्तित्व को

घना अंधेरा है हर तरफ
हर तरफ जद्दोजहद है
इस सुरंग से बाहर निकलने की

एक लंबी राह सामने है
कदमों मे कंपन है
किन्तु गति नहीं

लग रहा है
ये छद्म सवेरा तो नहीं ?
या ये घना अंधेरा ही है ? 
छंटने के इंतज़ार मे
जो तड़फड़ा रहा है
'तमसो मा ज्योतिर्गमय'
के गूँजते आलाप में
खुद की मुक्ति को!

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दीपावली आप सभी पाठकों को सपरिवार मंगलमय हो! 
---------------------------------------------------------

23 October 2011

क्षणिका

बादलों के छंटते ही
आसमान के साफ होते ही
चमकने लगती है धूप
स्मृति पटल पर
जैसे शीशे पर ढुलकती
बूंदों को
अभी अभी साफ किया हो
किसी ने!

20 October 2011

तीन


आज प्रस्तुत हैं मेरी मम्मी की लिखी यह पंक्तियाँ --

सम से समता
निज से निजता 
एक से एकता
लघु से लघुता
प्रभु से प्रभुता
मानव से मानवता
दानव से दानवता
सुंदर से सुंदरता
जड़ से जड़ता
छल से छलता
जल से जलता
दृढ़ से दृढ़ता 
ठग से ठगता
कर्म से कर्मठता
दीन से दीनता
चंचल से चंचलता
कठोर से कठोरता
समझ से समझता
खेल से खेलता
पढ़ से पढ़ता
इस का विधाता
से रिश्ता होता
ये दिल जानता
ये गहरा नाता
गर समझना आता
अपना सब लगता
मन हमारा मानता
दर्द न होता
जग अपना होता
विधाता का करता
गुणगान शीश झुकाता
मानवधर्म का मानवता
से सर्वोत्तम रिश्ता
सेवा प्रार्थना होता
सबसे अच्छा होता
ये गहरा रिश्ता
अगर सबने होता
समझा ये नाता
दिलों मे होता
रामकृष्ण गर बसता
संसार सुंदर होता
झगड़ा न होता
विषमता से समता
आ गया होता
विधाता से निकटता
तब हो जाता
जग तुमसा होता
जय भू माता!

16 October 2011

बेबस मन.....

(Photo curtsy:Google image search)










कागज के किरचों की तरह 
कभी कभी
बिखरता है मन
उड़ता जाता है
कितनी ही ऊंचाइयों को
छूता जाता है
हवा की लहरों के संग
कितने ही सँकरे
तीखे मोड़ों से गुज़र कर
टुकड़ा टुकड़ा टकरा कर आपस मे
छू लेता है ज़मीन को
थक हार कर
बेबस मन...
कागज के किरचों की तरह!

13 October 2011

मैं कौन हूँ ?

कभी कभी लगता है हम इन्सानों को क्या हो गया है। इंसान होते हुए भी क्या इंसान कहलाने लायक हम रह गए हैं? कनुप्रिया जी की फेसबुक वॉल पर शेयर किये गए इस चित्र को देख कर तो यही लगता है। क्या हम इतने पत्थर दिल हो गए हैं कि एक नन्ही सी जान को कूड़े के ढेर  मे चीटियों के खाने के लिए छोड़ दें?
हम कामना करते हैं अगला जन्म इंसान का मिले और कहीं अगले जन्म मे खुद हमारे साथ भी ऐसा हुआ तो?



खैर इस ह्र्द्यविदारक चित्र को देख कर कुछ और जो मन मे आया वह यहाँ प्रस्तुत है-


मैं कौन हूँ
मुझे नहीं पता
ये क्या हो रहा है
नहीं पता
चोट मुझ को लगी
जख्म कहाँ कहाँ बने
नहीं पता
क्या होगा मेरा
नहीं पता

नहीं पता मुझको
किसे कहूँगा माँ
नहीं पता मुझको
पिता कौन मेरा
हर पल है शामों जैसा
न जाने कब होगा सवेरा

घड़ी की टिक टिक के साथ
साँसों के चलते जाने की उम्मीद
अगर कुछ कह सका तो
कहूँगा यही
मुझे नहीं बनना इंसान

इंसान
जिसने फेंक दिया मुझ को
खरपतवार के बीच
ह्रदयहीन पशुओं के चरने को

नहीं बनना मुझे इंसान
क्योंकि
इंसान ने समझा नहीं
मुझ को भी
अपने जैसा

पल पल बीतता पल
और हर पल मुझको है
खुद की तलाश
इन इन्सानों के  बीच
मुझे नहीं पता
मैं कौन हूँ?

09 October 2011

डगमगाते कदम

जब चलना सीखा था
बचपन मे
दादा दादी की
मम्मी की पापा की
उँगलियों को थाम कर
ज़मीन पर खड़े होना
और फिर चलना
कभी दीवार  का सहारा लेकर
चलने की कोशिश
अक्सर गिरना
गिर कर रोना
उठना, संभलना और चलना
डगमगाते कदमों को 
प्रेरणा मिल ही जाती थी
तालियों की
मुस्कुराहटों की
बल मिल ही जाता था
ज़मीन पर स्थिर करने को
नन्हें नन्हें कदमों को

वो बचपन का दौर था
ये जवानी का दौर है
बीतते जाते हर पल की
नयी कहानी का दौर है

कदम अब भी लड़खड़ाते हैं
डगमगाते हैं
चोटिल होते हैं संभलते हैं
चलते जाते हैं

डगमगाना ज़रूरी है
गिरना ज़रूरी है
गुरूर और सुरूर को
ज़मीन पर लाने के लिये
आत्ममंथन के लिये
परिवर्तन के लिये
ज़रूरी हैं
ये डगमगाते हुए से कदम! 

07 October 2011

दंतेवाडा त्रासदी - समाधान क्या है?

छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा का नाम यूं तो कोई भी नहीं जानता था पर पिछले एक वर्ष से यह जगह नक्सली हमलों की वजह से खबरों की सुर्खियों मे है। आज सुबह फिर एकबार सैन्य वाहन पर नक्सली हमला हुआ प्रश्न यह है कि आखिर क्या वजह है नक्सली समस्या की? कौन हैं ये नक्सली और क्यों अक्सर अपने कारनामों से सरकार की नाक मे दम किए रहते हैं?

लगभग एक वर्ष पूर्व मेरे पिता जी का लिखा यह आलेख इसी सब पर रोशनी डालता है जिसे उनके ब्लॉग से साभार यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ---

दंतेवाड़ा त्रासदी - समाधान क्या है?  
 
विजय माथुर
 समय करे नर क्या करे,समय बड़ा बलवान.
असर ग्रह सब पर करे ,परिंदा पशु इनसान

मंगल वार ६ अप्रैल २०१० के भोर में छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा में ०३:३० प्रात पर केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल पर नक्सलियों का जो हमला हुआ उसमें ७६ सुरक्षाबल कर्मी और ८ नक्सलियों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.यह त्रासदी समय कि देन है.हमले के समय वहां मकर लग्न उदित थी और सेना का प्रतीक मंगल-गृह सप्तम भाव में नीच राशिस्थ था.द्वितीय भाव में गुरु कुम्भ राशिस्थ व नवं भाव में शनि कन्या राशिस्थ था.वक्री शनि और गुरु के मध्य तथा गुरु और नीचस्थ मंगल के मध्य षडाष्टक योग था.द्वादश भाव में चन्द्र-रहू का ग्रहण योग था.समय के यह संकेत रक्त-पात,विस्फोट और विध्वंस को इंगित कर रहे थे जो यथार्थ में हो कर रहा.विज्ञानं का यह नियम है कि,हर क्रिया कि प्रति क्रिया होती है.यदि आकाश मंडल में ग्रहों की इस क्रिया पर शासन अथवा जनता के स्तर से प्रतिक्रिया ग्रहों के अरिष्ट शमन की हुई होती तो इतनी जिन्दगियों को आहुति न देनी पड़ती।
जबहम जानते हैंकि तेज धुप या बारिश होने वाली है तो बचाव में छाते का प्रयोग करते हैं.शीत प्रकोप में ऊनी वस्त्रों का प्रयोग करते हैं तब जानबूझकर भी अरिष्ट ग्रहों का शमन क्यों नहीं करते? नहीं करते हैं तभी तो दिनों दिन हमें अनेकों त्रासदियों का सामना करना पड़ता है.जाँच-पड़ताल,लीपा – पोती ,खेद –व्यक्ति ,आरोप प्रत्यारोप के बाद फिर वाही बेढंगी चल ही चलती रहेगी.सरकारी दमन और नक्सलियों का प्रतिशोध और फिर उसका दमन यह सब क्रिया-प्रतिक्रिया सदा चलती ही रहेगी.तब प्रश्न यह है कि समाधान क्या है?महात्मा बुद्द के नियम –दुःख है! दुःख दूर हो सकता है!! दुःख दूर करने के उपाय हैं!!! दंतेवाडा आदि नक्सली आन्दोलनों का समाधान हो सकता है सर्वप्रथम दोनों और की हिंसा को विराम देना होगा फिर वास्तविक धर्म अथार्त सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रह,ब्रहाम्चार्य का वस्तुतः पालन करना होगा.

सत्य-सत्य यह है कि गरीब मजदूर-किसान का शोषण व्यापारी,उद्योगपति,साम्राज्यवादी सब मिलकर कर रहे हैं.यह शोषण अविलम्ब समाप्त किया जाये.

अहिंसा-अहिंसा मनसा,वाचा,कर्मना होनी चाहिए.शक्तिशाली व सम्रद्द वर्ग तत्काल प्रभाव से गरीब किसान-मजदूर का शोषण और उत्पीडन बंद करें.

अस्तेय-अस्तेय अथार्त चोरी न करना,गरीबों के हकों पर डाका डालना व उन के निमित्त सहयोग –निधियों को चुराया जाना ताकल प्रभाव से बंद किया जाये.कर-अप्बंचना समाप्त की जाये.

अपरिग्रह-जमाखोरों,सटोरियों,जुअरियों,हवाला व्यापारियों,पर तत्काल प्रभाव से लगाम कासी जाये और बाज़ार में मूल्यों को उचित स्तर पर आने दिया जाये.कहीं नोटों को बोरों में भर कर रखने कि भी जगह नहीं है तो अधिकांश गरीब जनता भूख से त्राहि त्राहि कर रही है इस विषमता को तत्काल दूर किया जाये.

ब्रह्मचर्य -धन का असमान और अन्यायी वितरण ब्रहाम्चार्य व्यवस्था को खोखला कर रहा हैऔर इंदिरा नगर लखनऊ के कल्याण अपार्टमेन्ट जैसे अनैतिक व्यवहारों को प्रचलित कर रहा है.अतः आर्थिक विषमता को अविलम्ब दूर किया जाये.चूँकि हम देखते हैं कि व्यवहार में धर्मं का कहीं भी पालन नहीं किया जा रहा है इसीलिए तो आन्दोलनों का बोल बाला हो रहा है. दंतेवाडा त्रासदी खेदजनक है किन्तु इसकी प्रेरणा स्त्रोत वह सामाजिक दुर्व्यवस्था है जिसके तहत गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है.कहाँ हैं धर्मं का पालन कराने वाले?पाखंड और ढोंग तो धर्मं नहीं है,बल्कि यह ढोंग और पाखण्ड का ही दुष्परिनाम है कि शोषण और उत्पीडन की घटनाएँ बदती जा रही हैं.जब क्रिया होगी तो प्रतिक्रिया होगी ही.


शुद्ध रहे व्यवहार नहीं,अच्छे आचार नहीं.
इसीलिए तो आज ,सुखी कोई परिवार नहीं.

समय का तकाजा है कि हम देश,समाज ,परिवार और विश्व को खुशहाल बनाने हेतु संयम पूर्वक धर्म का पालन करें.झूठ ,ढोंग-पाखंड की प्रवृत्ति को त्यागें और सब के भले में अपने भले को खोजें.

यदि करम खोटें हैं तो प्रभु के गुण गाने से क्या होगा?
किया न परहेज़ तो दवा खाने से क्या होगा?

आईये मिलकर संकल्प करें कि कोई किसी का शोषण न करे,किसी का उत्पीडन न हो,सब खुशहाल हों.फिर कोई दंतेवाडा सरीखी त्रासदी भी नहीं दोहराएगी.

06 October 2011

विजय दशमी है आज !

विजय दशमी है आज !
मैं देख रहा हूँ
सामने के पार्क मे खड़े
राक्षसी चेहरा सा लिए हुए पुतले को
बांस और सूखी लकड़ियों के कंकाल
घास-फूस की मांस पेशियों
भीतर के जोड़ों और जगह जगह
बम -पटाखों को खुद मे समाए
रद्दी रंगीन कागज़ की खाल ओढ़े
ये रावण का पुतला
शाम को
जल कर खाक हो जाएगा
शुभ मुहूर्त मे।

पुतला तो जल जाएगा
अपने अवशेष भी छोड़ जाएगा
हो जाएगा 
प्रतीकात्मक दैहिक अंत बुराई का 
किन्तु क्या होगा
उस वासना का
सजीव इंसानी पुतलों के भीतर
जो गहरे तक रची बसी है
क्या होगा  उस आचरण का
जो वचन मे कुछ
कर्म मे कुछ और होता है
क्या होगा उस संतोष का
असंतुष्टि के जाल मे
जो अब तक उलझा हुआ है?

बस ये कुछ
और बहुत से सवाल
बिखरे बिखरे से हैं जिनके जवाब
एक अजीब सी कशमकश
क्या सही है
क्या गलत है

फिर भी
एक रस्म को निभाना ही है
रावण को जलाना ही है
क्योंकि
विजय दशमी है आज !

आप सभी को विजय दशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!

02 October 2011

एक दिन का .....

एक दिन के सिद्दांत
एक दिन के आदर्श
एक दिन का सत्य
एक दिन की अहिंसा  
एक दिन खादी
एक दिन की श्रद्धा
एक दिन का स्मरण
आपके भजनों का
आपके त्याग का
सादगी का
विचारों का
एक दिन का
नख शिख अनुसरण
आपका
और बाकी दिन?

28 September 2011

उसका जीवन....

रोज़ पीठ पर बोझा लादे
वो दिख जाता है
किसी दुकान पर
पसीने से तर बतर
उसके चौदह बरस के शरीर पर
बदलते वक़्त की खरोचें
अक्सर दिख जाती हैं
कभी बालू ,सीमेंट ,गिट्टी
और कभी अनाज के बोरों
से निकलने वाली धूल
उसके जिस्म से चिपकती है
जन्मों के साथ की तरह
और जब उसका हमउम्र
उस दुकानदार का बेटा
मुँह मे चांदी की चम्मच
आँखों मे रौब का
काला चश्मा लगाए
खुद को खुदा समझ कर
उसे चिढ़ाता है
मैं देखता हूँ
मंद मंद मुस्कुराती हुई  
उसकी चमकती हुई सी
आँखों को
कुछ कहने को आतुर
पर शांत से होठों को
वो इसमे भी बहुत खुश है
संतुष्ट है इस जीवन से
क्योंकि
शायद यही उसका जीवन है 
पर एक आशा भी है उसके साथ
एक आशा
जो रोज़ रात को टिमटिमाती है
स्ट्रीट लाइट की मंद रोशनी मे
उसकी झोपड़ी के बाहर
जब वो सीख रहा होता है
कुछ पाठ
कूड़े के ढेर मे पायी
किसी गुमनाम की किताब से।

23 September 2011

परिंदों का मन

कितना मुक्त होता है
परिंदों का मन
पल मे यहाँ
पल मे वहाँ
पल मे ज़मीं पर
पल मे गगनचुंबी उड़ान
निश्छल ,निष्कपट
सीमाओं के अवरोध से रहित
पूर्ण स्वतंत्र
जीते हैं खुलकर जीवन। 

परिंदों का मन
बस कुछ सोच ही तो नहीं सकता
मानव मन की तरह
कर नहीं सकता
संवेदनाओं का चीरहरण
घबराता तो नहीं है
भूकंपों से,सुनामियों से
विनाश और विकास से
बंटा तो नहीं होता
भाषा और धर्म मे।

परिंदों का मन
बंधनों से
कितना मुक्त होता है
कितना स्वतंत्र होता है
किसी भी डाल को
आशियाना बनाने को
हरियाली के नजदीक
प्रकृति के नजदीक
परिंदों का मन
कुछ भी गा सकता है
मुक्त कंठ से !

17 September 2011

कुछ लिखना है

कुछ लिखना है
किसी के लिये
एक वादे के लिये
जो अभी अभी किया है
किसी से।
वो कहीं दूर
कर रहा है इंतज़ार
मेरे गुमनाम शब्दों का
न जाने क्यों?
न कोई चाह;
न कोई इच्छा ;
न कोई स्वार्थ;
फिर भी अक्सर
मन के दरवाजे पर
एक दस्तक देकर
वो  
पकड़ा देता है
एक विषय
और कहता है
कुछ लिखो
असमर्थ सा हूँ
कल्पनाशक्ति के
उस पार जाने मे
फिर भी सोच रहा हूँ
कुछ लिखने को
उस वादे के लिए
जो अभी अभी किया है
किसी से।

14 September 2011

वो रो रही है

वो*  रो रही है 
इसलिए नहीं कि
वक़्त के ज़ख़्मों से
आहत हो चुकी है
इसलिए नहीं कि
लग रहा है प्रश्न चिह्न
उसके अस्तित्व पर
इसलिए नहीं कि
अपमान के कड़वे घूंट
उसे रोज़ पीने पड़ते हैं
इसलिए नहीं
कि वो घुट रही है
मन ही मन मे

वो रो रही है
इसलिए कि उसके अपने
खो चुके हैं ;खो रहे हैं
अपनापन
वो रो रही है
इसलिए कि उसकी सौतन**
पा रही है प्यार
उससे ज़्यादा

उसे शिकवा नहीं
किसी अपने से
उसे गिला नहीं
किसी पराये से
पर फिर भी वो रो रही है
रोती जा रही है
बदलती सोच पर
जो छीन ले रही है
उससे उसके अपनों का साथ
काश! कोई उसको
उसके मन को
समझने की कोशिश तो करता
वो तलाश मे है
किसी अपने की
जो उससे कहता
तुम मेरी हो
हमेशा के लिए।
----------------

आशय -
*हिन्दी
**अंग्रेजी
----------

11 September 2011

पानी आने पर....

शाम के वक़्त
जब आता है नलों मे पानी
हलचल सी दिखती है
हर तरफ
कहीं धुलने लगते हैं कपड़े
हाथों से
वॉशिंग मशीनों से
कहीं धुलती हैं कारें
प्यासे पौधों को
मिलने लगता है
नया जीवन
दिन की गर्मी से बेहोश
धरती पर
होने लगता है छिड़काव
सोंधी सोंधी सी महक
कराती है एहसास
होश मे आने का

होश मे आ जाती है धरती
पानी का छिड़काव पाकर
मगर मैं
अब भी बेहोश हूँ
क्योंकि
मेरे घर की छत पर लगी टंकी
ढुलकाती रहती है
अनमोल धार
पूरी भर जाने के बाद भी
नलों मे
पानी के आने से लेकर
चले जाने तक।

10 September 2011

उड़ना चाहती हूँ

[कभी कभी कुछ चित्रों को देख कर बहुत कुछ मन मे आता है इस चित्र को देख कर जो मन मे आया वह प्रस्तुत है। यह चित्र अनुमति लेकर सुषमा आहुति जी की फेसबुक वॉल से लिया है] 

 
(1)
किसी आज़ाद पंछी की तरह
पंखों को फैला कर
मैं उड़ना चाहती हूँ
मुक्त आकाश मे।
(2)
समुंदर की लहरों की तरह
उछृंखल हो कर
वक़्त के प्रतिबिंब को
खुद मे समे कर
जीवन की नाव पर
हो कर सवार
मैं बढ़ना चाहती हूँ
खुद की तलाश मे।

07 September 2011

बदलती सुबह

सुबह सुबह
सूरज के निकलने तक 
कभी सुनाई देती थी
पास की मस्जिद से आती
अज़ान की आवाज़
मंदिर मे बजते घंटों की आवाज़
चिड़ियों की चहचहाहट
जिसके सुर मे सुर मिला रहे हों
हवा के ताज़े झोंके ।

मैं आज भी सुबह उठा
मगर वह सुबह नदारद थी
कान मे  हेड फोन लगाए
कुछ लोग सुन रहे थे
मुन्नी के बदनाम गीत
एग्झास्ट फैन से टकराते
हवा के सुस्त झोंके
वापस लौट जा रहे थे
सेठ जी के ए सी पर
नो एंट्री का बोर्ड देख कर

कितना फर्क हो गया है
बचपन की वह उच्छृंखल
वह बिंदास सुबह
अब सकुचती हुई
दबे पाँव आती है
और लौट जाती है
सूरज की किरणों के
गरम मिजाज को देख कर।

05 September 2011

वो स्कूल के दिन और मेरी टीचर्स

(स्कूल ड्रेस मे वह बच्चा जिसका ब्लॉग आप पढ़ रहे हैं )
ज शिक्षक दिवस है। पीछे लौटकर बीते दिनों को देखता हूँ, याद करता हूँ  तो मन होता है कि उन दिनों मे फिर से लौट जाऊँ। मैने पहले भी यहाँ एक बार ज़िक्र किया था कि पापा को देख कर मैंने थोड़ा बहुत लिखना सीखा है;स्कूलिंग शुरू हुई श्री एम एम शैरी स्कूल कमला नगर आगरा से जहां क्लास नर्सरी से हाईस्कूल तक( लगभग 5 वर्ष की आयु से 16 वर्ष की आयु तक ) पढ़ाई की। मुझे अभी भी चतुर्वेदी मैडम याद हैं जो 5th क्लास तक मेरी क्लास टीचर भी रहीं थीं और मेरे से विशेष स्नेह भी रखती थीं। वहाँ की वाइस प्रिन्सिपल श्रीवास्तव मैडम और जौहरी मैडम मैडम को भी मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। श्रीवास्तव मैडम और जौहरी मैडम के नाम मुझे अभी भी नहीं मालूम बस सरनेम याद है। श्रीवास्तव मैडम हिन्दी पढ़ाती थीं और जौहरी मैडम इंग्लिश बहुत अच्छा पढ़ाती  थी। मैं पढ़ाई मे शुरू मे ठीक था फिर बाद मे लुढ़कता चला गया लेकिन फिर भी चतुर्वेदी मैडम,श्रीवास्तव मैडम और जौहरी मैडम को मेरे से और मुझे उन से खासा लगाव था। जौहरी मैडम को ये पता चल गया था कि मैं लिखता हूँ बल्कि मैंने ही उनको अपनी कोई कविता कौपी के पन्ने पर लिख कर दिखाई थी तो उन्होने सलाह दी थी कि यशवन्त अपनी कविताओं को इस तरह पन्नों पर नहीं बल्कि किसी कौपी या डायरी मे एक जगह लिखा करो ऐसे खो सकते हैं (और अब तो यह ब्लॉग ही है सब कुछ सहेज कर रखने के लिये)। पूरी क्लास (लगभग 40-50 बच्चों के सामने)  मे उन्होने जो शब्द मेरे लिए कहे थे वो अब तक याद हैं "यह लड़का एक दिन कायस्थों का नाम रोशन करेगा " शायद  यह बात 6th या 7 th क्लास की होगी। पता नहीं कितना नाम रोशन करूंगा या नहीं पर उनका आशीर्वाद अब इतने सालों बाद भी मुझे याद है । इन्हीं जौहरी मैडम ने मुझे स्कूल ड्रेस की टाई बांधना सिखाई थी जो अब भी नहीं भूला हूँ और टाई बहुत अच्छी तरह से बांध लेता हूँ।
अक्सर सपनों मे मैं अब भी खुद को अपने स्कूल (एम एम शैरी स्कूल को मैं अपना स्कूल ही समझता हूँ) की किसी क्लास मे बैठा पाता हूँ जहां जौहरी मैडम ,श्रीवास्तव मैडम और चतुर्वेदी मैडम  पढ़ा रही होती हैं। लगभग 11 साल उस स्कूल को छोड़े हुए हो गए हैं और बहुत सी तमाम बातें मुझे अब भी याद हैं। बहुत सी शरारतें,क्लास्मेट्स से लड़ना ,स्कूल का मैदान और उस मे लगे कटीले तार जिन्हें दौड़ कर फाँदना बहुत अच्छा लगता था और अक्सर चोट भी खाई थी।   वर्ष 1988 मे पापा ने मेरा एडमिशन उस स्कूल मे इसलिए करवाया था क्योंकि वह घर से बहुत पास था। वह स्कूल अब भी वहीं है पर शायद सभी टीचर्स बदल गए हैं और बच्चे तो बदलेंगे ही जिनमे से एक मैं (अब 28 साल का बच्चा) उस शहर से बहुत दूर ,उस स्कूल से बहुत दूर उन टीचर्स से बहुत दूर हो चुका हूँ। लेकिन अपनी इन  सब से पसंदीदा टीचर्स को मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा। 

01 September 2011

मुक्त होना चाहता हूँ --

 (1)
बदन को छू कर
निकल जाने वाली हवा से
गर्मी की लू से
जाड़ों की शीत लहर से
मन भावन बसंत से,
बरसते सावन से
हर कहीं दिखने वाली
रोल चोल से
चहल पहल से
खामोशी से
तनहाई से
खुशी से -गम से
खुद से ,खुद की परछाई से
इस कमजोर दिल  से
मुक्त होना चाहता हूँ। 


(2)
ये मुक्त होने की चाह
सिर्फ चाह रहेगी
पत्थरों की बारिश मे
सिर्फ एक आह रहेगी
आह रहेगी;
मन की बेगानी महफिलों मे
रहेगा जिसमे संगीत
यादों का
कुछ कही-अनकही बातों का 
इस सुर लय ताल पर
हिलता डुलता सा
थिरकता सा
तुम्हारा अक्स
मुझे फिर कुलबुलाएगा
मुक्त हो जाने को ।

28 August 2011

इन्सान आज केन्ने जा रहल बा---श्रीमती पूनम माथुर

(श्रीमती पूनम माथुर )
परिवर्तन एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो समय के साथ साथ होता रहता है। यह परिवर्तन सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी।इंसान के बदलते व्यवहार पर पूर्वाञ्चल और बिहार की लोकप्रिय बोली भोजपुरी मे मेरी मम्मी द्वारा लिखा गया तथा क्रान्ति स्वर पर पूर्व प्रकाशित यह आलेख साभार यहाँ पुनः प्रस्तुत है-- 
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मार भईय्या जब रेल से घरे आवत रहलन तब ट्रेन में उनकर साथी लोगन कहलन कि हमनी के त बहुत तरक्की कर ले ले बानी सन.आज हमनी के देश त आजादी के बाद बहुत प्रगतिशील हो गइल बा.पहिले के जमाना में त घोडा गाडी ,बैल गाडी में लोग सफर करत रहलन लेकिन अब त पूरा महीना दिन में समूचा देश विदेश घूम के लोग घरे लौटी आवेला   .आजकल त This,That,Hi,Hello के जमाना बा. कोई पूछे ला कि how are you ?त जवाब मिले ला fine sir /madam कह दिहल जाला .कपड़ा ,लत्ता ,घर द्वार गाडी-घोडा फैशन हर जगह लोगन में त हमही हम सवार बा. आज त तरक्की के भर-मार बा.पर अपना पन से दूर-दराज बा.कोई कहे ला हमार फलनवा नेता बाडन त कोई कहे ला अधिकारी बाडन कोई प्राब्लम बा त हमरा से कहअ तुरन्ते सालव हो जाईल तनी चाय पानी के खर्चा लागी.बाकी त हमार फलनवा बडले बाडन निश्चिन्त रहअ  .खुश रहअ ,मस्त  रहअ  मंत्री,नेता अधिकारी बस जौन कहअ सब हमरे हाथे में बाडन .बात के सिलसिला अउर आगे बढित तब तक स्टेशन आ गईल .सब के गंतव्य आ गईल .अब के बतीआवेला सबे भागम्भागी में घरे जाय के तैयारी करत रहे अब बिहान मिलब सन .भाईबा त बात आगे बढ़ी आउर बतिआवल जाई सब कोई आपन आपन रास्ता नाप ले ले.रात हो गईल रहे सवारी मिले में  दिक्कत रहे हमार भइया धीरे धीरे पैदल घरे के ओरे बढ़त रहलन त देखलन  कि आर ब्लाक पर एगो गठरी-मोटरी बुझाई.औरु आगे बढ़लन त देखलन कि एगो आदमी गारबेज  के  पास बईठलबा थोडा औरु आगे उत्सुकता वश बढले त देखले कि ऊ आदमी त कूड़ा में से खाना बीन के खाता बेचारा भूख के मारल .अब त हमार भयीआ के आंखि में से लोर चुए लागल भारी मन से धीरे धीरे घरे पहुचलन दरवाजा हमार भौजी खोलली घर में चुपचाप बइठ गइला थोड़े देरे के बाद हाथ मुंह धो कर के कहलन की" आज खाना खाने का जी नही कर रहा है. आफिस में नास्ता ज्यादा हो गया है ,तुम खाना खा लो कल वही नास्ता कर लेंगे.भाभी ने पूछा बासी ,हाँ तो क्या हुआ कितनों को तो ऐसा खाना भी नसीब नहीं होता.हम तो सोने जा रहे हैं बहुत नींद आ रही है."
परन्तु बात त भुलाव्ते ना रहे कि आज तरक्की परस्त देश में भी लोगन के झूठन खाये के पड़ता आज हमार देश केतना तरक्की कइले बा .फिर एक सवाल अपने आप   में जेहन में उठे लागल कि भ्रष्टाचार ,बलात्कार,कालाबाजारी,अन्याय-अत्याचार ,चोरी-चकारी में इन्सान के 'मैं वाद' में पनप रहल बा .ई देश के नागरिक केतना आगे बढलबा अपने पूर्वज लोगन से?
भोरे-भोरे जब बच्चा लोगन उठल   अउर नास्ता के टेबुल पर बइठल  त कहे लागल "ये नहीं खायंगे वो नहीं खायेंगे"त ब हमार भइया रात के अंखियन देखल विरतांत कहलन  त लड़कन बच्चन सब के दिमाग में बात ऐसन बइठ गईल अउर सब सुबके लगलन सन .जे खाना मिले ओकरा प्रेम से खाई के चाही न नुकर ना करे के चाही .प्रेम से खाना निमको रोटी में भी अमृत बन जा ला.अब त लडकन सब के ऐसन आदत पडी गईल बा .चुप-चाप खा लेवेला अगर बच्चन सब के ऐसन आदत पड़जाई त वक्त-बे वक्त हर परिस्थिति के आज के नौजवान पीढी सामना कर सकेला .जरूरत बाटे आज सब के आँख खोले के मन के अमीर सब से बड़ा अमीर होला.तब ही देश तरक्की करी.इ पैसा -कौड़ी सब इहे रह जाई
एगो गीत बाटे -"कहाँ जा रहा है तू जाने वाले ,अपने अन्दर मन का दिया तो जला ले."
आज के इ  तरक्की के नया दौर में हमनी के संकल्प लिहीं कि पहिले हमनी के इन्सान बनब.-वैष्णव जन तो तेने कहिये .................................................................के चरितार्थ करब.
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