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वर्षा शुक्ला जी ने 'नादान परिंदे' लिख कर अपनी टिप्पणी दी थी। उनकी टिप्पणी से मिले आईडिया के आधार पर उस समय जो मन मे आया वह
सबसे पहली 4 पंक्तियों के रूप में फेसबुक पर ही लिख दिया था। आज उन पंक्तियों को और बढ़ा कर यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ-
कभी नादान हुआ करते थे,अब शैतान हुआ करते हैं,
कभी बेखौफ उड़ा करते थे,अब चलने में सोचा करते हैं
परिंदे हम तब भी थे,परिंदे हम अब भी हैं
लम्हे तब साथ चलते थे,अब लम्हों में जीया करते हैं
कुछ सपने तब भी बुनते थे, कुछ सपने अब भी बुनते हैं
घूम फिर कर नयी राह पर,हर पल आ पहुँचते हैं
परिंदे हम तब भी थे,परिंदे हम अब भी हैं
तब चलते थे हाथ थाम कर,अब मन भर दौड़ा करते हैं
कभी बातें खुद से करते थे,अब बातें सब से करते हैं
कभी पन्नों से खुद की कहते थे,अब मन की सब से कहते हैं
परिंदे हम तब भी थे,परिंदे हम अब भी हैं
तब राहों की बाट जोहते थे,अब राहों पे सफर करते हैं
कभी नादान हुआ करते थे ,अब शैतान हुआ करते हैं
कभी लिख कर फाड़ा करते थे,अब हर अक्षर सहेजा करते हैं
परिंदे हम तब भी थे,परिंदे हम अब भी हैं
तब ज़मीन पे फुदका करते थे,अब आसमां में उड़ा करते हैं।
©यशवन्त माथुर©