(चित्र सौजन्य:गूगल सर्च) |
चौराहे पर
दिखती है भीड़
लोगों की
कारों मे
आते जाते लोगों की
सरसराते भागते लोगों की
बसों से झाँकते लोगों की
टेंपुओं मे ठुसे हुए लोगों की
साइकिल मे चलते लोगों की
कदमताल करते लोगों की
(चित्र सौजन्य:गूगल सर्च) |
फुटपाथों पर सोते लोगों की
नंगों की ,लंगड़ों की
अंधों की
और उसी भीड़ में कहीं
फावड़ा छैनी हथोड़ा थामे भी
दिख जाते हैं
नर -नारी
और गोद मे शिशु
जिनकी अपनी ही
छोटी सी दुनिया है
दो कमरों के
छोटे से घर मे सिमटी हुई
जिसके ऊपर डली है
टीन की छत
फावड़ा थामे वो हाथ
मैले से कपड़ों मे सिमटे वो लोग
आधार हैं
संपन्नता का
फुटों -मीटरों ऊंची दीवारों पर
एक पटरे पर अटकी रहती है
जिनकी साँसों की डोर
रहते हैं विपन्न
उपेक्षित
गुमनाम
ठीक वैसे ही
जैसे अपने मे खोई रहती है
अट्टालिकाओं की नींव ।
(घर के सामने बन रहा एक मकान अब फिनिशिंग पर है ....पाड़ लगाए मजदूर आज कल एक दीवार पर प्लास्टर करने मे जुटे हैं,घने कोहरे मे घर के अंदर बैठ कर जब मैं आराम से यह पंक्तियाँ लिख रहा हूँ वो मजदूर खुले मे अपना काम कर रहे हैं....इन पंक्तियों की प्रेरणा वही मजदूर हैं जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता। )
बहुत खूब...
ReplyDeleteदिल को छू गयी आपकी रचना..
या कहूँ दिल को दुखा गयी ..
सादर.
खूबसूरत उदगार, अच्छी रचना
ReplyDeleteउम्दा भाव।
ReplyDeleteदिल को छू गयी रचना..
ReplyDeleteजीवन का कड़वा सच.....
बहुत सुंदर भाव की बेहतरीन रचना जो सीधे दिल को कचोटती है,..
ReplyDeleteWELCOME to new post--जिन्दगीं--
kya khun samaj ke us varg ki vibhishikanyen behad trasad haen.aaj ki post satya ko aabhas kra gai .
ReplyDeleteयथार्थ को दर्शाती बढ़िया प्रस्तुति ....
ReplyDeleteयथार्थ है जी...
ReplyDeleteयथार्थवादी रचना ! उन मजदूरों के पास जाकर किसी दिन दुआ सलाम भी कर लीजिए...उनकी आँखों में और भी फसाने हैं...
ReplyDeletekitni saralta se aapne itni gahri baat kahdi...Yashwant ji..sach kahan ham un majduron ke baare mei sochte hai jinhne raat din garmi thand sab sah kar humara sapne pura kiya hoga...
ReplyDeletehum cement ke pinjre mei rehne waale soch bhi chhoti ho jaati hai humari...
बहुत सुंदर
ReplyDeleteमार्मिक किन्तु सत्य..........बहुत सुन्दर पोस्ट..........हैट्स ऑफ इसके लिए|
ReplyDeleteगहरे उतरते शब्द ... बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteसुन्दर और सार्थक भाव हैं ....
ReplyDeleteये सबके घर बनाने वाले सच कितने बेघर होते हैं
ReplyDeleteआज यहाँ कल जाने कहाँ भटकते फिरते हैं..
....एक आम और संवेदनशील रचनाकार में यही तो अंतर है की वह जो देखता है, महसूस करता है उसे जब तक कलम के माध्यम से व्यक्त न कर दें, तब तक उसे चैन नहीं ..
..सार्थक मर्मस्पर्शी रचना..आभार
बहुत सार्थक प्रस्तुति, आभार|
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील और मर्मस्पर्शी प्रस्तुति..
ReplyDeleteआपकी किसी पोस्ट की चर्चा नयी पुरानी हलचल पर कल शनिवार 7/1/2012 को होगी । कृपया पधारें और अपने अनमोल विचार ज़रूर दें। आभार.
ReplyDeleteफावड़ा थामे वो हाथ
ReplyDeleteमैले से कपड़ों मे सिमटे वो लोग
आधार हैं
संपन्नता का
सच्चाई है, जीवन का रंग है,
कहीं दर्द है, कहीं उमंग है.
गहन अनुभूति...
सुंदर रचना......
ReplyDelete--जिन्दगीं--
यथार्थवादी रचना, बहुत उम्दा..........!!
ReplyDelete!
sach hai badi-badi attalika banane wale haath bhog nhi paate vo aishvarya....
ReplyDeletebilkul sahi chitran kiya hai.
kavi hriday kisi ke bhi dukh se udvelit ho sakta hai.
shubhkamnayen
sach kaha apane
ReplyDeleteshayad unake kaamo par log itna dhyan nahi dete
bad mein jiska ghar hain use kahte hain"kya ghar banaya aapne sahab maan gaye"
us mazdur ko koi nahi puchta
mere blog par bhi aaiyega
umeed kara hun aapko pasand aayega
http://iamhereonlyforu.blogspot.com/
बहुत खूब.
ReplyDeleteसुन्दर रचना... वाह!
ReplyDeleteसच्चाई को उकेरती सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteसच्चाई को उकेरती अच्छी रचना
ReplyDeleteमानवीय संवेदना में गुँथी कविता मन को छू जाती है.
ReplyDeleteAntim panktiyon ne moh liya
ReplyDeleteअभी तो 64 साल ही हुए हैं आज़ादी के!
ReplyDeleteबेहतरीन रचना।
ReplyDeleteइंसानी जज्बात को करीब से समझने का अवसर देती पोस्ट।
तिल-तिल कर जीवन की रचना.
ReplyDeletebehad sundar prastuti ....badhai
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी ......
ReplyDeleteकुछ कहना हर बार जरुरी नहीं होता....समझना होता है...उस पर अमल करना भी.....
ReplyDeleteसच का आवरण लिए लेखनी
ReplyDeleteआप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद!
ReplyDeleteयथार्थ से रूबरू...
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