कभी कभी लगता है जैसे अपने जाल मे फंसा कर भूख वक़्त कर रहा हो शिकार भावनाओं का और कभी कभी ऐसा भी लगता है जैसे बुढ़ाती भावनाएँ आत्महंता बन कर खुद को फंसा रही हैं वक़्त के फंदे में अंत सुनिश्चित है आज नहीं तो कल। |
28 March 2012
कभी कभी .........
26 March 2012
'बीयर' है कि मानती नहीं
मेरे एक बहुत ही अज़ीज़ पूर्व सहकर्मी और मित्र जो मेरे फेसबुक मित्र भी हैं ,आज उन्होने 'बीयर' पर अपना एक स्टेटस दिया है ("The First Beer Of Every Person's Life was not Bought by their Own Money........")
उनके इस स्टेटस को पढ़ कर जो कुछ मन मे आया वो टाइप होता चला गया और अब आपके सामने इस रूप मे प्रस्तुत है -------
कोई खुद पीता है
कोई पिलाता है
कोई खुद झूमता है
कोई झूमाता है
कभी खुद के पैसों से
कभी यारों के करम पे
न जाने कौन से नशे मे
किस नतीजे की तलाश मे
बेढब उजालों मे
या अँधेरों की आस मे
कभी खुद लुटता है
कभी खुद को लुटाता है
इस नशे से
शराब से
कैसा ये नाता है
समझ नहीं आता है
है अजीब सी राह
कश्मकश से भरी
जिसके हर मोड पर
कांटे हैं फूल नहीं
जो अँधेरों से शुरू होती है
अँधेरों पर ही खतम
ढाती है सितम
बेगुनाहों पर मगर
भरी बोतल को अक्ल
कभी आती नहीं
'बीयर' है कि मानती नहीं।
उनके इस स्टेटस को पढ़ कर जो कुछ मन मे आया वो टाइप होता चला गया और अब आपके सामने इस रूप मे प्रस्तुत है -------
कोई खुद पीता है
कोई पिलाता है
कोई खुद झूमता है
कोई झूमाता है
कभी खुद के पैसों से
कभी यारों के करम पे
न जाने कौन से नशे मे
किस नतीजे की तलाश मे
बेढब उजालों मे
या अँधेरों की आस मे
कभी खुद लुटता है
कभी खुद को लुटाता है
इस नशे से
शराब से
कैसा ये नाता है
समझ नहीं आता है
है अजीब सी राह
कश्मकश से भरी
जिसके हर मोड पर
कांटे हैं फूल नहीं
जो अँधेरों से शुरू होती है
अँधेरों पर ही खतम
ढाती है सितम
बेगुनाहों पर मगर
भरी बोतल को अक्ल
कभी आती नहीं
'बीयर' है कि मानती नहीं।
24 March 2012
रूप
तुम से कहा था न
मिलना मुझे
अपने उसी रूप मे
जो तुम्हारा है
पर अफसोस
मैं देख पा रहा हूँ
वही रूप
जिसे तुम
देखते हो
रोज़
आईने के सामने
वो रूप नहीं
भ्रम है
मुखौटा है
जो
काला है
कभी गोरा है
जिसकी कल्पना
कभी
चित्र बन जाती है
और कभी कविता
पर अगर
देख सको
कभी
अपना असली रूप
तो करा देना
पहचान
मुझे भी
मेरे असली रूप की
जिसकी मैं
तलाश मे हूँ ।
मिलना मुझे
अपने उसी रूप मे
जो तुम्हारा है
पर अफसोस
मैं देख पा रहा हूँ
वही रूप
जिसे तुम
देखते हो
रोज़
आईने के सामने
वो रूप नहीं
भ्रम है
मुखौटा है
जो
काला है
कभी गोरा है
जिसकी कल्पना
कभी
चित्र बन जाती है
और कभी कविता
पर अगर
देख सको
कभी
अपना असली रूप
तो करा देना
पहचान
मुझे भी
मेरे असली रूप की
जिसकी मैं
तलाश मे हूँ ।
21 March 2012
कभी बड़ी मत होना
आज फिर उसे देखा
रोज़ की तरह
आज भी
वो खेल रही थी
अपने घर के बाहर
मैं उसे रोज़ देखता हूँ
कभी कभी छेड्ता हूँ
और वो जब दौड़ती है
'अंकल' को मारने के लिये
उन पलों का आनंद
ताज़ा रहता है
जेहन मे
काफी समय तक
उसका नटखटपन
उसकी तुतलाहट
उसकी खीझ और
खुशी
काफी है
किसी को भी
मोहने के लिए
वो छुटकी
दोस्त है मेरी
हर बार
मैं
उससे यही कहता हूँ-
कभी बड़ी मत होना
और वो
मेरी आँखों मे
अपनी नासमझ
आँखें डाल
मेरी गोद मे
इठलाती हुई
झूमती है
अपनी मस्ती मे
जैसे कह रही हो
मुझे ये सब
नहीं पता ।
(काल्पनिक)
रोज़ की तरह
आज भी
वो खेल रही थी
अपने घर के बाहर
मैं उसे रोज़ देखता हूँ
कभी कभी छेड्ता हूँ
और वो जब दौड़ती है
'अंकल' को मारने के लिये
उन पलों का आनंद
ताज़ा रहता है
जेहन मे
काफी समय तक
उसका नटखटपन
उसकी तुतलाहट
उसकी खीझ और
खुशी
काफी है
किसी को भी
मोहने के लिए
वो छुटकी
दोस्त है मेरी
हर बार
मैं
उससे यही कहता हूँ-
कभी बड़ी मत होना
और वो
मेरी आँखों मे
अपनी नासमझ
आँखें डाल
मेरी गोद मे
इठलाती हुई
झूमती है
अपनी मस्ती मे
जैसे कह रही हो
मुझे ये सब
नहीं पता ।
(काल्पनिक)
17 March 2012
बदलाव
कितनी जल्दी
बदल जाते हैं दिन
कितनी जल्दी
बदल जाते हैं सपने
अपेक्षाएँ ,कसमें ,वादे
चित्र भी, चरित्र भी
कभी ये मजबूरी होती है
और कभी छलावा
चेहरे के भीतर के
चेहरे का दिखावा
सूरज उगता है
दिन चढ़ता है
और ढलने के समय
रंग बदलता है
गहरी रात और फिर
बदलते रंग की तरह
श्वेत सुबह
चक्र तो प्रकृतिक ही है
फिर इस बदलाव से
मैं क्यों परेशान ?
क्यों हूँ हैरान ?
सिर्फ इसलिये कि
चुकानी पड़ती है
कुछ तो कीमत
जज्बाती होने की ।
बदल जाते हैं दिन
कितनी जल्दी
बदल जाते हैं सपने
अपेक्षाएँ ,कसमें ,वादे
चित्र भी, चरित्र भी
कभी ये मजबूरी होती है
और कभी छलावा
चेहरे के भीतर के
चेहरे का दिखावा
सूरज उगता है
दिन चढ़ता है
और ढलने के समय
रंग बदलता है
गहरी रात और फिर
बदलते रंग की तरह
श्वेत सुबह
चक्र तो प्रकृतिक ही है
फिर इस बदलाव से
मैं क्यों परेशान ?
क्यों हूँ हैरान ?
सिर्फ इसलिये कि
चुकानी पड़ती है
कुछ तो कीमत
जज्बाती होने की ।
15 March 2012
ये तस्वीरें
रह रह कर
मन के पर्दे पर
उभर रही हैं
कुछ तस्वीरें
जो बरबस
तैर रही हैं
आँखों के सामने
ये तस्वीरें
दिन का ख्वाब हैं
या सहेजी हुई
कोई बेशक्ल
बेतुकी नज़्म
या किसी
पुरानी किताब
के गलते पन्नों पर
अस्तित्व खोते अक्षर
कह नहीं सकता
ये तस्वीरें
जो भी हैं
बहुत चुभ रही हैं
आँखों को
न जाने क्यों ?
मन के पर्दे पर
उभर रही हैं
कुछ तस्वीरें
जो बरबस
तैर रही हैं
आँखों के सामने
ये तस्वीरें
दिन का ख्वाब हैं
या सहेजी हुई
कोई बेशक्ल
बेतुकी नज़्म
या किसी
पुरानी किताब
के गलते पन्नों पर
अस्तित्व खोते अक्षर
कह नहीं सकता
ये तस्वीरें
जो भी हैं
बहुत चुभ रही हैं
आँखों को
न जाने क्यों ?
11 March 2012
रंगा हुआ कैनवास
सोचा था
खाली पड़े
इस कैनवास पर
खींच दूँ
कुछ आड़ी तिरछी
रंगीन रेखाएँ
वक़्त की पृष्ठभूमि
पर उकेर दूँ
जीवन का चित्र
बना दूँ
कुछ मुखौटे
जिनका चरित्र
झांक रहा हो
मन की खिड़की से
मेरे पास
कैनवास भी है
रंग भी हैं
कूची भी है
कल्पना भी है
मगर
यह कोरा कैनवास
रंगा हुआ है
पहले ही
पूर्वाग्रह के
छीटों से ।
खाली पड़े
इस कैनवास पर
खींच दूँ
कुछ आड़ी तिरछी
रंगीन रेखाएँ
वक़्त की पृष्ठभूमि
पर उकेर दूँ
जीवन का चित्र
बना दूँ
कुछ मुखौटे
जिनका चरित्र
झांक रहा हो
मन की खिड़की से
मेरे पास
कैनवास भी है
रंग भी हैं
कूची भी है
कल्पना भी है
मगर
यह कोरा कैनवास
रंगा हुआ है
पहले ही
पूर्वाग्रह के
छीटों से ।
09 March 2012
क्यों फागुन चला आता है ? >> (वटवृक्ष पत्रिका के फरवरी 2012 -होली विशेषांक मे प्रकाशित )
न रागों की पहचान मुझे
न साज सजाना आता है
हैं रस- छंद- अलंकार अबूझे
न गीत बनाना आता है
क्या होते सप्तरंग सुर
संगीत,कोकिला ही जाने
है बहुत डगमग यह डगर
न रंग रचाना आता है
बस कहता है कुछ शब्द मन
भाव कहीं धुंधलाता है
अब तक यह न समझ सका
क्यों फागुन चला आता है ?
न साज सजाना आता है
हैं रस- छंद- अलंकार अबूझे
न गीत बनाना आता है
क्या होते सप्तरंग सुर
संगीत,कोकिला ही जाने
है बहुत डगमग यह डगर
न रंग रचाना आता है
बस कहता है कुछ शब्द मन
भाव कहीं धुंधलाता है
अब तक यह न समझ सका
क्यों फागुन चला आता है ?
07 March 2012
क्या कहूँ
सभी पाठकों को होली की अशेष शुभ कामनाएँ!
है रंगों की मस्ती
हर ओर क्या कहूँ
मुरझाए फूलों का
जी उठना क्या कहूँ
मिठास भरी गुझिया का
स्वाद क्या कहूँ
क्या कहूँ कि ठंडाई
असर अपना दिखाती है
भंग मिली महंगाई
पहेली बूझ न पाती है
सब कुछ है रेडीमेड
कोई न तैयारी क्या कहूँ
कुछ पल की फुहार
पिचकारी क्या कहूँ
मन की हार्ड डिस्क मे
सुनहरे कुछ पल सहेजे हैं
उन बीती यादों का
फिर न मिलना क्या कहूँ 01 March 2012
बीता हुआ कल हूँ
मैं आज नहीं
बीता हुआ कल हूँ
बीते हुए कल का
एक यादगार पल हूँ
कुछ खट्टा
कुछ मीठा
कुछ तीखा
कुछ कडुआ
जानता हूँ
मेरे एक हिस्से को
चाहोगे तुम
सहेज कर रखना
और एक हिस्से को
चाहोगे करना ज़ुदा
अपने मन से
मगर
रह रह कर
कराता रहूँगा एहसास
तुम्हारी ताकत का
कमजोरी का
क्योंकि
मैं आज नहीं
बीता हुआ कल हूँ
बीता हुआ कल हूँ
बीते हुए कल का
एक यादगार पल हूँ
कुछ खट्टा
कुछ मीठा
कुछ तीखा
कुछ कडुआ
जानता हूँ
मेरे एक हिस्से को
चाहोगे तुम
सहेज कर रखना
और एक हिस्से को
चाहोगे करना ज़ुदा
अपने मन से
मगर
रह रह कर
कराता रहूँगा एहसास
तुम्हारी ताकत का
कमजोरी का
क्योंकि
मैं आज नहीं
बीता हुआ कल हूँ