मुझे फिकर है
बिजली जाने की
इन्टरनेट से
दूर हो जाने की
मुझे फिकर है
खुद की
खुद के घर की
मुझे फिकर है
औरों के सुख की
खुद के दुख की
मुझे फिकर है
सिर्फ उनकी
जिन्हें मैं जानता हूँ
पहचानता हूँ
क्योंकि
इस आवरण से
नहीं निकल सकता
बाहर
चाह कर भी
एक ये 'मैं' हूँ
घोर स्वार्थी
जो खुद के लिये
सिर्फ खुद का है
और एक 'वो' है
जो सबके लिये
और सबका है
'वो'
जो खुद के घर से
मीलों दूर
रेगिस्तान की
तपती रेत में भी
तरोताजा है
'वो' जो
भयंकर शीत मे भी
जुझारू है
कभी बंकर के भीतर
कभी बाहर
जिसके जज़्बात
दबे हुए हैं भीतर कहीं
जो एक पल को
शायद कभी
कुलबुलाता है
जब कोई उसकी
राह देखता
बुलाता है
'वो'
जो सैनिक है
मुझ से
बहुत अच्छा है
'मैं' कागजी शेर हूँ
और 'वो'
सच में दहाड़ता है।
©यशवन्त माथुर©
बिजली जाने की
इन्टरनेट से
दूर हो जाने की
मुझे फिकर है
खुद की
खुद के घर की
मुझे फिकर है
औरों के सुख की
खुद के दुख की
मुझे फिकर है
सिर्फ उनकी
जिन्हें मैं जानता हूँ
पहचानता हूँ
क्योंकि
इस आवरण से
नहीं निकल सकता
बाहर
चाह कर भी
एक ये 'मैं' हूँ
घोर स्वार्थी
जो खुद के लिये
सिर्फ खुद का है
और एक 'वो' है
जो सबके लिये
और सबका है
'वो'
जो खुद के घर से
मीलों दूर
रेगिस्तान की
तपती रेत में भी
तरोताजा है
'वो' जो
भयंकर शीत मे भी
जुझारू है
कभी बंकर के भीतर
कभी बाहर
जिसके जज़्बात
दबे हुए हैं भीतर कहीं
जो एक पल को
शायद कभी
कुलबुलाता है
जब कोई उसकी
राह देखता
बुलाता है
'वो'
जो सैनिक है
मुझ से
बहुत अच्छा है
'मैं' कागजी शेर हूँ
और 'वो'
सच में दहाड़ता है।
©यशवन्त माथुर©
वो'
ReplyDeleteजो सैनिक है
मुझ से
बहुत अच्छा है
'मैं' कागजी शेर हूँ
और 'वो'
सच में दहाड़ता है। bhaut hi behtreen...
मन के द्वंद्ध को परिभाषित करती रचना ...
ReplyDeleteमुझे फिकर है
ReplyDeleteसिर्फ उनकी
जिन्हें मैं जानता हूँ
पहचानता हूँ
क्योंकि
इस आवरण से
नहीं निकल सकता
बाहर
चाह कर भी....
बधाई ...यसवंत जी
सच कहा यशवंत .....यह मरते हैं...की हम शान से जी सकें
ReplyDeleteआपकी कविता में यथार्थ का चित्रण हुआ है
ReplyDeleteवो'
ReplyDeleteजो सैनिक है
मुझ से
बहुत अच्छा है
'मैं' कागजी शेर हूँ
और 'वो'
सच में दहाड़ता है।
बहुत अच्छे.....!
क्या खूब लिखा है आपने .....कमाल हैं आप भी !
ReplyDeleteदोनो का हि अपना महत्व है जी....
ReplyDeleteगहन अभिव्यक्ती....
:-)
सबके अपने अपने मोर्चे हैं
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति सुंदर पोस्ट,,,, ,
ReplyDeleteMY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: ब्याह रचाने के लिये,,,,,
खुद को तौलना और तौलते रहना जरूरी है एक जिम्मेदार नागरिक के लिए .........आप समझते हैं अपनी जिम्मेदारियां ...भले ही कलम के जरिये हों ...लेकिन हैं तो ............
ReplyDelete'वो'
ReplyDeleteजो सैनिक है
मुझ से
बहुत अच्छा है....
'मैं' कागजी शेर हूँ
और 'वो'
सच में दहाड़ता है।
तुलना नहीं अच्छे-बुरे का
अलग-अलग काम केलिए ,
अलग-अलग इंसान होता ....
कलम की दहाड़ भी सब के बस में कहाँ होता ....
On mail by-Yashoda Agarwal ji
ReplyDeleteवाकई भाई
एकदम सच
खुद को जानना खुद को समझना जीवन को और सुगम बनाता है .बहुत गहन अभिव्यक्ति लिख डाली ....शुभकामनाएं.यशवन्त !
ReplyDeleteइतना ईमानदार आत्म-विश्लेषण ! मन को गहरे तक प्रभावित कर गई आपकी सच्चाई और यह कविता!
ReplyDeleteईश्वर आपको खूब तरक्की दे ! आमीन!
कलम भी तलवार से कम नहीं है, सदियाँ, इतिहास गवाह हैं. दोनों का अपना - अपना स्थान है. शुभकामनायें
ReplyDeleteबहुत गहन और सार्थक आत्म विश्लेषण .....बधाई!
ReplyDelete'वो'
ReplyDeleteजो सैनिक है
मुझ से
बहुत अच्छा है
'मैं' कागजी शेर हूँ
और 'वो'
सच में दहाड़ता है।
बहुत सुंदर कहा, लेकिन वो सीमा पर है तो कलमकार बगैर बन्दूक के भी सिंहासन हिलाने की क्षमता रखता है वो बात और है कि वह खामोश कर दिया जाय.
वाह !! कमाल की रचना...
ReplyDeleteबहुत पसंद आई!!
Bijli ne lagta hai kuch zyada hi pareshan kar diya hai :-
ReplyDelete)