पिछली कई सदियों से
खड़ा हूँ
इस चौराहे पर
चकाचौंध पर
सैकड़ों दिन
सैकड़ों रातें बीत चुकीं
मैं
बस यूं ही खड़ा हूँ
चेतना रहित तो नहीं हूँ
उस पार देख रहा हूँ
दाएँ कभी बाएँ देख रहा हूँ
इस चौराहे पर
कोई बाधा नहीं है
लोग आ रहे हैं
जा रहे हैं
अपनी राह
अराजकता है
फिर भी दुर्घटना नहीं
मेरे कदमों मे कंपन है
एक पल की सोच
बढ़ जाऊँ
एक पल की सोच
रुक जाऊँ
उलझन है
क्या करूँ ?
मैं यूं ही रहूँ
या चलने लगूँ
इस अर्ध जड़त्व का
कुछ तो असर होना ही है
पर क्या यह संभव है
गिरूँ तो मैं गिरूँ
पर
चोट धरती को न लगे
सोच रहा हूँ
बस इसीलिये खड़ा हूँ।
©यशवन्त माथुर©
खड़ा हूँ
इस चौराहे पर
चकाचौंध पर
सैकड़ों दिन
सैकड़ों रातें बीत चुकीं
मैं
बस यूं ही खड़ा हूँ
चेतना रहित तो नहीं हूँ
उस पार देख रहा हूँ
दाएँ कभी बाएँ देख रहा हूँ
इस चौराहे पर
कोई बाधा नहीं है
लोग आ रहे हैं
जा रहे हैं
अपनी राह
अराजकता है
फिर भी दुर्घटना नहीं
मेरे कदमों मे कंपन है
एक पल की सोच
बढ़ जाऊँ
एक पल की सोच
रुक जाऊँ
उलझन है
क्या करूँ ?
मैं यूं ही रहूँ
या चलने लगूँ
इस अर्ध जड़त्व का
कुछ तो असर होना ही है
पर क्या यह संभव है
गिरूँ तो मैं गिरूँ
पर
चोट धरती को न लगे
सोच रहा हूँ
बस इसीलिये खड़ा हूँ।
©यशवन्त माथुर©