मेरे बाबा जी (Grand Father) स्वर्गीय ताज राज बली माथुर जी ने वर्ष 1955 -56 के लगभग सैन्य अभियंत्रण सेवाओं ( M E S) से नौकरी कीशुरुआत की थी। चूंकि सरकारी आदेशानुसार कार्य स्थल पर हिन्दी अनिवार्य कर दी गयी थी अतः ओफिशियल ट्रेनिंग के हिन्दी पाठ्यक्रम मे 'सरल हिन्दी पाठमाला' (1954 मे प्रकाशित) नाम की पुस्तक भी शामिल थी जिसकी मूल प्रति हमारे पास आज भी सुरक्षित है।
प्रस्तुत हास्य कविता इसी पुस्तक से स्कैन कर के यहाँ दे रहे हैं।यह कविता रूढ़ीवादी शिक्षा-प्रणाली पर तीखा व्यंग्य है ।
प्रस्तुत हास्य कविता इसी पुस्तक से स्कैन कर के यहाँ दे रहे हैं।यह कविता रूढ़ीवादी शिक्षा-प्रणाली पर तीखा व्यंग्य है ।
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शिक्षक दिवस पर बहुत बढ़िया कविता पढवाने के लिए आभार!
ReplyDeleteसच गुरुजी के डंडे का डर अब तक आँखों से दूर नहीं हुआ है ..आज भले ही न वे गुरु रहे न डंडा ..
शिक्षक दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!
पहले की पढ़ाई बहुत अनुशाषित होती थी,आजकल पढाना सर्फ फार्मेल्टी बन गई है,,,,,
ReplyDeleteRECENT POST,तुम जो मुस्करा दो,
माता ने बंधवा दिया, इक गंडा-ताबीज |
ReplyDeleteडंडे के आगे मगर, हुई फेल तदबीज |
हुई फेल तदबीज, लुकाये गुरु के डंडे |
पड़े पीठ पर रोज, व्यर्थ सारे हतकंडे |
रविकर जाए चेत, पाठ नित पढ़ कर आता |
अक्षरश:दे सुना, याद कर भारति माता ||
उत्कृष्ट प्रस्तुति का लिंक लिंक-लिक्खाड़ पर है ।।
Deleteइस डंडे से तो डर हमेशा ही लगा रहा ...पर शायद वही दर आज मुकाम ताक ले आया है .... शिक्षक दिवस की शुभकामनाये !
ReplyDeletewah, kya khoob jatan kiya hai....
ReplyDeletedhanyavaad:-)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर !
शिक्षक दिवस की शुभकामनायें !!
सुन्दर कविता..आपको भी शुभकामनाएँ..
ReplyDeleteसुंदर धरोहर सँजो कर रखा है आपने माथुर साहब शुक्रिया !
ReplyDeleteबहुत खूब....|
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शुभकामनाएं..यशवन्त..मैने भी शिक्षक दिवस पर एक लेख पोस्ट की है मेरे वाल पर तो आरहा है लेकिन डेस्ट बोर्ड पर नही दिखारहा है..शायद तुम्हारे ्डे्स्ट बोर्द पर भी नही दिख रहा होगासमझ नही आया क्या हुआ..
ReplyDeleteभय बिन होत न प्रीत
ReplyDeleteपुराने गुरूजी और उनके डंडे!
ReplyDeleteअच्छा लगा उन्हें याद करना !
bahut sundar kavita
ReplyDeleteबहुत सुंदर...शिक्षक दिवस की शुभकामनायें!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता...
ReplyDeleteशुभकामनाये....
:-)
सहेजने योग्य थांती.....शुभकामनायें
ReplyDeleteयह कविता पढ़ कर आज मैं फिर सिंहर उठा. अरे बाप रे!! क्या डंडा होता था.
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