आते जाते
राहों पर
तिराहों-चौराहों पर
मंदिर -मजारों पर
गिरिजा-गुरुद्वारों पर
मैं देखता हूँ
हाथ फैलाए खड़े
लठिया टेक लोगों की
अनोखी दुनिया को
आसमान की
खुली छत के नीचे
बसने वाला आदिम युग
खत्म होती सब्सिडी से
बेखबर हो कर भी
बा खबर रहता है
अगले फुटपाथ पर
गूँजती नयी किलकारी से
ईद और दीवाली से
अब एक कमरे मे सिमटी
लाखों किलोमीटर की
गोल दुनिया
छोटी लगती है
लठिया टेक लोगों की
दो गज़ चादर से
न जाने क्यों ?
©यशवन्त माथुर©
राहों पर
तिराहों-चौराहों पर
मंदिर -मजारों पर
गिरिजा-गुरुद्वारों पर
मैं देखता हूँ
हाथ फैलाए खड़े
लठिया टेक लोगों की
अनोखी दुनिया को
आसमान की
खुली छत के नीचे
बसने वाला आदिम युग
खत्म होती सब्सिडी से
बेखबर हो कर भी
बा खबर रहता है
अगले फुटपाथ पर
गूँजती नयी किलकारी से
ईद और दीवाली से
अब एक कमरे मे सिमटी
लाखों किलोमीटर की
गोल दुनिया
छोटी लगती है
लठिया टेक लोगों की
दो गज़ चादर से
न जाने क्यों ?
©यशवन्त माथुर©
अब एक कमरे मे सिमटी
ReplyDeleteलाखों किलोमीटर की
गोल दुनिया
छोटी लगती है
लठिया टेक लोगों की
दो गज़ चादर से
न जाने क्यों ?
बहुत सुन्दर यशवंत ,,ख़ुश रहिये और ऐसे ही अच्छा लिखते रहिये
Yashwant aapki kavita kee dhaar din wa din badhti ja rahi hai ... bahut acche !
ReplyDeleteजीवंत भावनाएं.सुन्दर चित्रांकन,बहुत खूब
ReplyDeleteबेह्तरीन अभिव्यक्ति
सोच में पड़ गयी हूँ....न जाने क्यूँ???
ReplyDeleteअच्छी अभिव्यक्ति यशवंत
सस्नेह
अनु
जीवंत चित्रांकन..क्या क्या सोचता मन..बहुत सुन्दर .यशवंन..
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति
ReplyDeleteनमन करता हूं आप की लेखनी को... कविता पढ़ते हुए कविता और भी मनमोहक लग रही है... मेरी नयी रचना के लिये मेरे ब्लौग पर आना... http://www.kuldeepkikavita.blogspot.com
ReplyDeleteखूबसूरत भावभिव्यक्ति
ReplyDeleteआसमान की
ReplyDeleteखुली छत के नीचे
बसने वाला आदिम युग
खत्म होती सब्सिडी से
बेखबर हो कर भी
बा खबर रहता है
अगले फुटपाथ पर
गूँजती नयी किलकारी से
ईद और दीवाली से
सच है ..उसे तो अपने और अपने से जुड़े लोगों से ही लेना देना है ...वह क्या जाने सियासी दांव पेंच ..बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति यशवंत.
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteमहानगरों का विरोधाभास... एक ही शहर में जैसे दो अलग अलग दुनिया बसी हुई है...
ReplyDelete:)
ReplyDeleteसचमुच बहुत अनोखी और बड़ी है, लठिया टेक लोगों की दो गज़ चादर से बनी दुनिया... गहन भाव
ReplyDeleteवो जो लठिया टेक है
ReplyDeleteनहीं चाहिए सब्सिडी उसे
पास आते इस विश्व-ग्राम में
व्यापार का हिस्सा है वह!
yakinan... naa jaane kyun???..ye prashn tairata rahta hai..
ReplyDeleteअब एक कमरे मे सिमटी
ReplyDeleteलाखों किलोमीटर की
गोल दुनिया
छोटी लगती है
लठिया टेक लोगों की
दो गज़ चादर से
न जाने क्यों ?
मेरे जैसे
लोगो की वजह से .....
गुरुदेव,एक कमरे में सिमटी जिन्दगी !
अकेलापन बे-मौत मारता है !!
शुभकामनायें !
अब एक कमरे मे सिमटी
ReplyDeleteलाखों किलोमीटर की
गोल दुनिया
छोटी लगती है
लठिया टेक लोगों की
दो गज़ चादर से
..बहुत बढ़िया आत्म चिंतन कराती संवेदनशील प्रस्तुति
mere khyaal se isko thoda aur expand kar sakte the.. aisa lagta hai ki ekdum se pravaah ruk gaya vichaaron ka... main isse aur aage padhna chaahungi..
ReplyDeleteगोल दुनिया
ReplyDeleteछोटी लगती है
लठिया टेक लोगों की
दो गज़ चादर से
न जाने क्यों ?,,,,,जीवांत भावनाओं की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति,,,,
RECENT POST: तेरी फितरत के लोग,
गहन भाव लिए संवेदनशील रचना..
ReplyDeleteबहुत बढ़िया.....
ReplyDeleteगहन,ह्रदय स्पर्शी रचना ....
ReplyDeleteवाह...लाजवाब रचना यशवंत जी...बधाई
ReplyDeleteनीरज
अक्सर... ना जाने क्यूं ही होता है...
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी...
उन्हें क्या लेना ...दुनिया के ग़मों से ...उन्हें क्या वास्ता कौमो की फितरत से ....अपनी ही दुनिया बस जीते हैं ....अपनों में हैं फ़रिश्ते से ...!
ReplyDeletehmm..soch me hoon.
ReplyDeletegahre bhavon se yukt sundar kavita
ReplyDeleteWays to find Happiness in Life
आपकी कविताओं में निखार आ रहा है. बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति.
ReplyDeleteसुन्दर कविता
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