बढ़े अजीब होते हैं
ये ख्यालों के टेढ़े मेढ़े
रास्ते
जिन से गुज़र कर
गिरते उठते शब्द
बन बिगड़ कर
धर लेते हैं
कोई न कोई रूप
और आखिरकार
पा ही लेते हैं
अपनी मंज़िल
ख्यालों के
इन टेढ़े मेढ़े रास्तों पर चलना
कभी शब्दों की
मजबूरी होती है
और कभी
स्वाभाविक इच्छा
क्योंकि
संघर्ष से ही
बिखरे शब्द
एक हो कर
रूप धरते हैं
गद्य या पद्य का।
©यशवन्त माथुर©
ये ख्यालों के टेढ़े मेढ़े
रास्ते
जिन से गुज़र कर
गिरते उठते शब्द
बन बिगड़ कर
धर लेते हैं
कोई न कोई रूप
और आखिरकार
पा ही लेते हैं
अपनी मंज़िल
ख्यालों के
इन टेढ़े मेढ़े रास्तों पर चलना
कभी शब्दों की
मजबूरी होती है
और कभी
स्वाभाविक इच्छा
क्योंकि
संघर्ष से ही
बिखरे शब्द
एक हो कर
रूप धरते हैं
गद्य या पद्य का।
©यशवन्त माथुर©
क्योंकि
ReplyDeleteसंघर्ष से ही
बिखरे शब्द
एक हो कर
रूप धरते हैं
गद्य या पद्य का।
सटीक रचना..:-)
बहुत ही खुबसूरत ख्यालो से रची रचना......
ReplyDeleteसंघर्ष से ही बिखरे शब्द
ReplyDeleteएक हो कर रूप धरते हैं
गद्य या पद्य का ..
या यूँ कहें, कि भावनाओं का ..
बहुत बढ़िया,
सादर
बिल्कुल सही
ReplyDeleteसच बात कही है आपने..संघर्ष वास्तव में सच्चे भाव को बाहर लाती है.
ReplyDeleteसत्य है !!!
ReplyDeleteऔर सत्य भी बड़ी ख़ूबसूरती से बयाँ किया है आपने ....
सटीक बात ... संघर्ष से बिखरे शब्द ही कुछ कहते हैं ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर बात....यूँ ही तो सृजन नहीं होता अच्छी रचना का...
ReplyDeleteसस्नेह
अनु
सार्थक रचना!
ReplyDeleteBahut sundar
ReplyDeleteबहुत सुन्दर । बिलकुल सही बात कही आपने ।
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