धुंध कोहरे की जमी दिन भर
धूप छुपी शरमायी है
मफ़लर, टोपी, शॉल और स्वेटर
निकला कंबल, रज़ाई है
देखो सर्दी आई है ....
हीटर, गीजर दौढ़ता मीटर
सुस्ती मे अब चलता फ्रीजर
हाट मे सस्ती मिलती गाज़र
हलवे की रुत आई है
देखो सर्दी आई है .....
मूँगफली के दाने टूटते
रेवड़ी- गज़क के पैकेट खुलते
चाय -कॉफी की चुस्की लेते
गुड़ देख चीनी लजाई है
देखो सर्दी आई है ......
सिर से पैर तक खुद को ढ़क कर
मौसम के अमृत को चख कर
बाहर जब नज़र घुमाई है
नंगे जिस्मों पर ओस की बूंदें
मुझे कभी समझ न आई है
कैसी सर्दी आई है ?
©यशवन्त माथुर©