धुंध कोहरे की जमी दिन भर
धूप छुपी शरमायी है
मफ़लर, टोपी, शॉल और स्वेटर
निकला कंबल, रज़ाई है
देखो सर्दी आई है ....
हीटर, गीजर दौढ़ता मीटर
सुस्ती मे अब चलता फ्रीजर
हाट मे सस्ती मिलती गाज़र
हलवे की रुत आई है
देखो सर्दी आई है .....
मूँगफली के दाने टूटते
रेवड़ी- गज़क के पैकेट खुलते
चाय -कॉफी की चुस्की लेते
गुड़ देख चीनी लजाई है
देखो सर्दी आई है ......
सिर से पैर तक खुद को ढ़क कर
मौसम के अमृत को चख कर
बाहर जब नज़र घुमाई है
नंगे जिस्मों पर ओस की बूंदें
मुझे कभी समझ न आई है
कैसी सर्दी आई है ?
©यशवन्त माथुर©
क्या बात है यशवंत जी..सर्दी के मौसम का पूरा आनंद दिला दिया आपकी कविता ने ...साथ ही अंतिम पंक्तियाँ कुछ सोचने को विवश कर गईं.
ReplyDeleteएक कटु सत्य ..
ReplyDeleteनंगे जिस्मों पर ओस की बूंदें
ReplyDeleteमुझे कभी समझ न आई है
कैसी सर्दी आई है ?
आपको छत्तीसगढ़ की एक कहावत समर्पित
लइकन को हम लागब नाहीं, ज्वानन हैं संग भाई ..
बुढन को हम छाड़ब नाहीं, चाहे ओढें लाख रजाई....
सिर से पैर तक खुद को ढ़क कर
ReplyDeleteमौसम के अमृत को चख कर
बाहर जब नज़र घुमाई है
नंगे जिस्मों पर ओस की बूंदें
मुझे कभी समझ न आई है
क्या कहूं .. मुझे भी नहीं समझ आई .. :(
सर्दी के दोनों पहलुओं को बड़ी ही सहजता से व्यक्त किया है..
ReplyDeleteकहीं ख़ुशी है तो कही दुःख भी..
अंतिम पंक्तियाँ बहुत ही संवेदनशील है..
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (29-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
ReplyDeleteसूचनार्थ!
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (29-12-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
ReplyDeleteसूचनार्थ!
bhut sunder likha hai
ReplyDeleteसुन्दर बाल गीत .
ReplyDeleteबधाई सार्थक लेखन के लिए .
हीटर, गीजर दौढ़ता मीटर।।।।।।।।।दौड़ता ........
सुस्ती मे अब चलता फ्रीजर।।।।।।।।।।।में
हाट मे सस्ती मिलती गाज़र।।।।।।।।।।।में
हलवे की रुत आई है
Virendra Sharma @Veerubhai1947
ram ram bhai मुखपृष्ठ http://veerubhai1947.blogspot.in/ शुक्रवार, 28 दिसम्बर 2012 अतिथि कविता :हम जीते वो हारें हैं
नव वर्ष में सब शुभ हो आपके गिर्द .
जीते वह हारे हैं , कैसे अजब नज़ारे हैं .... अधिक »
अतिथि कविता :हम जीते वो हारें हैं
ram ram bhaiपरVirendra Kumar Sharma - 6 मिनट पहले
अतिथि कविता :हम जीते वो हारें हैं -डॉ .वागीश मेहता हम जीते वह हारे हैं ................................... दिशा न बदली दशा न बदली , हारे छल बल सारे हैं , वोटर ने मारे फिर जूते , कैसे अजब नज़ारे हैं . (1) पिछली बार पचास पड़े थे , अबकी बार पड़े उनचास , जूते वाले हाथ थके हैं , हाईकमान को है विश्वास , बंदनवार सजाये हमने , हम जीते वह हारे हैं , कैसे अजब नज़ारे हैं .... अधिक »
नंगे जिस्मों पर ओस की बूंदें
ReplyDeleteमुझे कभी समझ न आई है
इसमें समझना क्या...भगवान ने शायद उनकी किस्मत में ही लिख दिया है...
बहुत भावपूर्ण रचना....
प्यारी कविता यशवंत भाई. सर्दी के सारे रंग को मानस-पटल पर आप ले आये. और साथ ही एक दुखःद सच्चाई को भी.
ReplyDeleteसर्दी के मौसम का मजा दुगना हो गया ,पर उनका क्या जो इस मौसम की मर झेलते हैं ,सच .............अच्छी रचना है बधाई _
ReplyDeleteसच ही बहुत सर्दी है .... सुंदर रचना
ReplyDeleteGazak, gajar halue ka maja lete lete aankhen nam kar di bhai. bahut achchha, dil chhooliya.
ReplyDeleteसर्दी का बहुत सुन्दर चित्र खींचा है आपने
ReplyDeleteसर्दी के हर रंग को दिखाती बेहतरीन रचना यशवंत जी ! आनंद आ गया ! साथ ही अंतिम पंक्तियाँ दिल दुखा गयीं ! काश इन जिस्मों पर भी पर्याप्त वस्त्र आ जाएँ !
ReplyDeleteदेखो सर्दी आई है ......
ReplyDeleteसिर से पैर तक खुद को ढ़क कर
मौसम के अमृत को चख कर
बाहर जब नज़र घुमाई है
नंगे जिस्मों पर ओस की बूंदें
मुझे कभी समझ न आई है
.....सर्दी के साथ ही एक सच जो जब जब सामने आता है कुछ कहते नहीं बनता,,सूझता नहीं ...
बहुत बढ़िया सार्थक प्रस्तुति हेतु आभार!
लगता है सर्दी के मौसम का पूरा आनंद लेरहे हो..? यशवन्त....सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteलग रहा है सचमुच सर्दी आ गयी अब तो ...
ReplyDeleteबहुत खूब ...
प्रभावी लेखन,
ReplyDeleteजारी रहें,
बधाई !!
प्रभावी लेखन,
ReplyDeleteजारी रहें,
बधाई !!