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31 January 2013

क्षणिका

जब कभी देखता हूँ
शब्दों के आईने में
अपना अक्स ...
तो बच नहीं पाता हूँ
खुद के बिखरे होने के
एहसास से।
 
©यशवन्त माथुर©

30 January 2013

बापू !

(1)

बापू !
राजघाट पर
आज लगे जमघट में
मुझे तलाश है
उन तीन बंदरों की
जो हुआ करते थे
कभी तुम्हारे हमराही
पर आज जो
छुपे बैठे हैं
फर्जी प्रवचनों और
मुखौटों के ढेर में कहीं। 

(2)

बापू!
तुम आज
दीवार पर टंगी
वह तस्वीर हो
जो मुस्कुराते हुए 
रो रही है
देख कर
आजादी का
एक नया रूप
हाँ
आजादी का नया रूप
जिसमें
नाबालिग को
अधिकार नहीं रोजगार का
पर
उसके कुकर्मों को
मिल जाता है
'उचित' न्याय।

(3)

बापू!
मैं नहीं कर रहा कामना 
तुम्हारी आत्मा की शांति की
क्योंकि मुझे पता है
तुम कुलबुला रहे हो
फिर से
इस धरती पर
आने को।

©यशवन्त माथुर©

29 January 2013

काश!

काश!
इन्सान भी होता
वक़्त की तरह
तो कहीं से भी हो कर
गुज़र सकता ....
खुद ही मिल जाती
अमरता ....
न रुकता कहीं
न कभी थकता ....
काश!
इन्सान भी
वक़्त की तरह होता। 

©यशवन्त माथुर©

28 January 2013

बदतमीज़ सपने

बदतमीज़ सपने 
रोज़ रात को 
चले आते हैं 
सीना तान कर 
और सुबह होते ही 
निकल लेते हैं 
मूंह चिढ़ा कर 
क्योंकि 
बंद मुट्ठी का 
छोटा सा कमरा 
कमतर है 
बड़े सपनों की 
हैसियत के सामने।
  
©यशवन्त माथुर©
 

27 January 2013

वो धोखा दे रहा था या मैं धोखा खा रहा था ?

इसी चौराहे पर
कल वो बेचता हुआ झंडे 
एक का  एक ...एक का एक
चिल्ला रहा था
भारत माता की
जयकार लगा रहा था

इसी चौराहे पर आज
साफ करते हुए कप प्लेट 
उन्हीं हाथों से अपनी
किस्मत चमका रहा था

ये उसका बचपन है
या ढलती हुई जवानी
दो जून की रोटी
और किस्मत की कहानी

इस चौराहे से गुजरती
रोज़ तरक्की देखते हुए  
वो धोखा दे रहा था
या मैं धोखा खा रहा था ?
 ©यशवन्त माथुर©

26 January 2013

गणतन्त्र दिवस पर........

दीवारों के उस पार
आज तो नज़र आना ही है
सड़कों के उस पार
कदम बढ़ाना ही है

जहां बसता है 'लोक'
'तंत्र' की बाट जोहता हुआ
कूड़े के ऊंचे ढेरों में
जवानी को खोजता हुआ

बिना आँचल की छांव
सड़कों पर लोटता हुआ
रोता हुआ

या झुरमुटों की ओट में
तार तार होता हुआ

जो भी हो मजबूर 'भारत'
आज तो चमकना ही है
'इंडिया' की बोतल को पी कर
आज तो बहकना ही है 

हो भले तस्वीर बदरंग
तिरंगा लहराना ही है
गीत भले ही हों पराए
पर आज तो गाना ही है 

दीवारों के उस पार
आज तो नज़र आना ही है
चूने की सफेदी को गर्व से
राजपथ पे छाना ही है।

©यशवन्त माथुर©

25 January 2013

जिंदगी फिर भी चलती जा रही है।

जब  चला
तो सोचा था
कि इन राहों पर
बिछे होंगे
नये ताज़े
खुशबूदार फूल
कुछ लाल
कुछ पीले
कुछ बहुरंगी फूल

मैं चला
तो मेरे स्वागत में
फूल 
बिछे भी थे
मखमल के
गुदगुदे बिस्तर की तरह 
जिस पर चलने का
सुनहरा एहसास
होता हो
शायद ही किसी को

मैं सीना तानकर
मुस्कुराकर
चल रहा था
अपने गुरूर में
पर यह नशा
यह सुख
क्षणिक था
स्थायी नहीं

फूलों की सुंदरता
ताजगी
और नयी खुशबू
अब खोती जा रही है
नयी कलियों के
खिलने के इंतज़ार में 
जिंदगी फिर भी
चलती जा रही है।

©यशवन्त माथुर©

24 January 2013

शांति कहाँ है ?

मोटरों से चीखते
चौराहों के शोर में
दिन के उजाले में
रातों में
और क्षणिक भोर में ....
तनहाई में
नींद में
या बंद आँखों की ओट में  ....
आगे बढ्ने की दौड़ में
आज के इस दौर में
सब कुछ है हर जगह
पर
शांति कहाँ है ?

©यशवन्त माथुर©

23 January 2013

वो सीख चुकी है जीना.....

पल पल बदलते
मौसम के इन रंगों में
कभी धूप में
कभी छांव में
नहीं बदलता है
उसका मलिन
काला चेहरा
हाड़ कंपाने वाली ठंड ने
झुलसाने वाली धूप और लू ने 
बेशर्म अंधियों -तूफानों ने
नामर्द वक़्त की
ललचाई नज़रों ने
ठोक -पीट कर 
उस 'फुटपाथिया' को
सिखा दिया है जीना
कभी
मज़दूरनी बन कर
तो कभी
भिखारिन बन कर ।

©यशवन्त माथुर©

22 January 2013

खटरागी हूँ ....

संगीत विधा का
कोई ज्ञाता ही
बता सकता है
रागों के बारे में
फिर भी एक राग है
जो मुझ को आता है
वह राग
खटराग कहलाता है।

खट-खट-खट- के स्वर
खट-खट-खट- के उतार चढ़ाव
खट-खट ध्वनि
कभी धीमी
कभी तेज़
खट-खट-खट- की संगत
खटकती रहती है
हर पल
मेरे कमरे में।

मन की डोर से बंधी
नर्तन करती
कठपुतली जैसी उँगलियाँ
मानो छेड़ रही हों तान
अभिव्यक्ति के
हारमोनियम पर।

पर यह
बहुत ही साधारण यंत्र है
मेरे कंप्यूटर का तंत्र है
प्रयोग कर्ता स्वतंत्र है
'की बोर्ड' का
अनुरागी हो जाने को
मेरी तरह
खटरागी कहलाने को।  

©यशवन्त माथुर©

21 January 2013

कलम.....

.
न कुछ सोच कर
न कुछ समझ कर
कुलबुलाती कलम तो बस
यूं ही चलती है
कागज की राहों पर

कागज की राहों पर
जिनका आदि तो निश्चित है
पर अनिश्चित अन्त तक
पहुँचते पहुँचते
क्या क्या रच देगी कलम
कुछ स्याह कुछ सफ़ेद
शायद उसे भी पता नहीं

कलम वरदान है
अभिशाप भी है
अनोखा पुण्य है
और पाप भी है 

कलम मंत्र है
अजान,अरदास और प्रार्थना है
कलम जीवन है
और मौत की याचना है

न कुछ सोच कर 
न कुछ समझ कर 
शब्द सीमाओं के परे
कागज़ की मायावी दुनिया में
पंछी की तरह उड़ती है कलम
बस कुछ उँगलियों में जकड़ कर !

©यशवन्त माथुर©

20 January 2013

पूर्वाग्रही हूँ......

चाहता तो हूँ
कि बचा रहूँ
पूर्वाग्रह के
संक्रामक रोग से
मगर 
इसकी सार्वभौमिकता
अक्सर अपनी चपेट में लेकर
लगवा ही देती है मुझ पर
पूर्वाग्रही का ठप्पा ।

©यशवन्त माथुर©

19 January 2013

कोशिशें जारी हैं

मनोबल
एक ऐसी दीवार होता है
जिसकी नींव
कभी कभी संशय में रहती है
कभी तन कर
अपनी जगह
बनाए रखती है दीवार को
और कभी
एक ठोकर में ही
ढह जाने देती है

मेरा मन
मेरा मनोबल
स्थिर है
चिकने घड़े की तरह
बे परवाह है
फिर भी
लातों की
कोशिशें जारी हैं
विध्वंस को
अंजाम देने की। 

©यशवन्त माथुर©

18 January 2013

'इनके' 'उनके' सपने.............

(चित्र आदरणीय अफलातून जी की फेसबुक वॉल से )
सपने 'ये' भी देखते हैं
सपने 'वो' भी देखते हैं 

'ये' इस उमर में कमाते हैं
दो जून की रोटी जुटाते हैं 
जुत जुत कर रोज़
कोल्हू के बैल की तरह 
'उनको' निहार कर 
'ये' बस मुस्कुराते हैं 

'इनको' पता है कि दुनिया 
असल में होती क्या है 
रंगीन तस्वीरें हैं 
मगर अक्स स्याह है 

'इनके' सपनों की दुनिया में 
'उनकी' बे परवाह मस्ती है 
'ये' दर्द को पीते हैं 
और 'उनकी' आह निकलती है 

सपने 'ये' भी देखते हैं 
सपने 'वो' भी देखते हैं 
बस 'ये' ज़मीं पे चलते हैं 
और 'वो' आसमां में उड़ते हैं।    

©यशवन्त माथुर©

17 January 2013

उल्लू जैसे सपने

दिन के उजाले में
सो जाते हैं सपने
रात के अंधेरे में
जाग जाते हैं सपने

अपने से लगते हैं
कभी पराए से लगते हैं
रोते हैं खौफ से
कभी बिंदास हँसते हैं

रंग बदलते हैं सपने
यूं तो गिरगिट की तरह
नीरस स्वाद की तरह
खुद को दोहराते हैं सपने

मतलबी बन कर
तो कभी बेमतलब ही सही
ख्यालों की शाख पे 
उल्लू जैसे नज़र आते हैं सपने।  

©यशवन्त माथुर©

16 January 2013

सपने

सपने
ईश्वर का वरदान हैंमानव को
क्योंकि सपने
भूत की प्रेरणा से
वर्तमान मे
आधार बुनते हैं
सुनहरे भविष्य का।

©यशवन्त माथुर©

15 January 2013

सपने सिर्फ सपने ही नहीं होते

सपने
सिर्फ सपने ही नहीं होते
कभी कभी
वास्तविकता का आभास बन कर
खींच देते हैं चित्र भविष्य का।
चित्र जिसमें
अनेकों रंगों के साथ
मिलती जुलती कालिख
कराती है पूर्णता का एहसास
बनाती है खास
चित्र के चरित्र को ।
सपने सिर्फ सपने ही नहीं होते
कभी कभी
मन के कैनवास पर बिखर कर
करा देते हैं संगम
भूत,वर्तमान और भविष्य का। 

©यशवन्त माथुर©

14 January 2013

आज़ाद विषय........

आज
खुल ही गयी गांठ
एक बहुत भारी गठरी की
जिसमें सदियों से बंद
तमाम विषय
अब इधर उधर बिखर कर
मन के कमरे में उछल कूद कर
मना रहे हैं जश्न
बंधन से आज़ाद होने का।

अब तलाश है तो बस
किसी अच्छे डिटर्जेंट की
जो कर सके साफ
जंग लगी सोच के धरातल को
जिससे ये हरे  भरे विषय
ले सकें खुल कर सांस
शब्दों में ढल कर
किसी किताब के पन्नों पर!

©यशवन्त माथुर©

13 January 2013

अगर जीवन सपना होता......

सपनों की रंगीन
चित्ताकर्षक
मनमोहक
और अपनी मनचाही
दुनिया में घूमते हुए
मैं अक्सर सोचता हूँ
यह जीवन भी
होता अगर
ऐसे ही किसी
सुखांत सपने की तरह
तब शायद
एक बार खिल उठने के बाद
कोई फूल
न कभी मुरझाता 
और न ही कर पाता
नव जीवन का एहसास !

    
©यशवन्त माथुर©

12 January 2013

अजीब सी चिड़िया.....

वक़्त!
एक ऐसी चिड़िया है
जिसे कोई शिकारी
कितने ही दाने डाल कर
फंसा नहीं सकता
अपने जाल में ।
पर ऊंची उड़ान भरती
तीखी चोंच वाली
यह चिड़िया
सुनाती हुई
कभी कौवे जैसे
कर्कश स्वर
और कभी
कोयल जैसे
सुरीले गीत गा कर
बांधे रखती है
हर शिकारी को
अपने मोह पाश में!   

©यशवन्त माथुर©

11 January 2013

सब थम जाता है जब.....

सड़कों पर गूँजते नारे
हक की बुलंद आवाज़ें
गुस्सा,आक्रोश,जुनून,
सब थम जाता है
चीखता गला
थक जाता है
किये धरे पर पानी
फिर जाता है....
शरीर पर चटकती
पुलिस की लाठीयों से नहीं ...
सड़क पर बहते
खून की धार से नहीं....
बल्कि मशीन पर लगे
उस नीले बटन से
जब चुनाव आता है
वोट उसी को जाता है
जो हम को सताता है
क्योंकि
जात,धर्म का दृष्टि दोष
हमें देखने नहीं देता
काले चश्मे के
उस पार!

©यशवन्त माथुर©

10 January 2013

कौन जानता है ?

भावनाओं के धधकते
ज्वालामुखी से निकलता
एहसासों का धुआँ
सिर्फ एक पूर्वानुमान है।
उसके भीतर दबे
शब्दों का लावा
अपनी जद में
समेटेगा
किन विधाओं को ...
कौन जानता है ?
©यशवन्त माथुर©

09 January 2013

अभावों के भाव

अभावों के भाव
इसी मौसम में बढ़ते हैं
जब ‘नाम’ की उम्मीद में भाव
दर दर भटकते हैं

कहीं कंबल ऊनी
कहीं कागजी दुशाले हैं किस्मत में
रैन बसेरों में
सीले अलाव भी ठिठुरते हैं

हैं वो ही ‘यशवंत’
जो बंद कमरों में बैठ कर
आरंभ से अंत तक
बेतुकी लिखा करते हैं

अभावों के भाव
इसी मौसम में बढ़ते हैं
जब भरी धूप में भाव
बर्फ से जमते हैं ।
©यशवन्त माथुर©

08 January 2013

क्षणिका

खामोशी में
घड़ी की
डरावनी टिक टिक 
न जाने कैसा
आनंद पाती है
कभी न थमने में।

 ©यशवन्त माथुर©

07 January 2013

खानाबदोश कौन ?

खानाबदोश कौन ?
वो जो
आवारा जानवरों की तरह
सड़क किनारे भटकते हैं
दो जून की रोटी को  !
या
खानाबदोश मैं ?
जो हर पल भटक रहा हूँ
दर बदर  
अस्तित्व की तलाश में!
©यशवन्त माथुर©

06 January 2013

अजीब सी धुन .....

मन को लुभाने वाली
संगीत की धुन 
उस वक़्त अजीब सी लगती है 
जब कानों में गूंजने वाली 
मीठी स्वरलहरियाँ 
राह से भटक कर
धर लेती है रूप 
फटे बांस की आवाज़ जैसा :) 
 ©यशवन्त माथुर©

05 January 2013

कुछ प्रश्न

कुछ प्रश्न
हमेशा
सिर्फ प्रश्न ही रहते हैं 
क्योंकि
उनके उत्तरों में लगा
प्रश्न चिह्न
कभी मिटने नहीं देता
अपना अबूझ
अस्तित्व!

©यशवन्त माथुर©

04 January 2013

सफर की दास्तान....

बड़े अजीब से
इन रास्तों पर चल कर
कभी गिर कर
कभी संभल कर
ज़रूरी नहीं कि कोई
इनसां ही
बने हमसफर ...
किनारे गिरे पड़े
टेढ़े मेढ़े पत्थर
पैरों की
खाते हुए ठोकर
सुना सुना कर
खटर पटर
संगीत की तान....
कर देते हैं पूरी
इस सफर की दास्तान।
©यशवन्त माथुर©

03 January 2013

क्षणिका .....

सवेरा कब का हो गया
फिर भी
कोहरे के आँचल तले
अब तक
धूप सो रही है
ले रही है 
मंद हवा के खर्राटे
बता रही है
पेड़ों की हिलती पत्तियों को 
कि आलसी
सिर्फ
इंसान ही नहीं होता। 

 ©यशवन्त माथुर©

02 January 2013

क्षणिका.....

सोच रहा हूँ
ख्वाबों के दल दल से
बाहर आ कर
काल्पनिक दुनिया के
पार आ कर
चुभीली सच्चाई से
हाथ मिला कर
अब कर ही लूँ दोस्ती
वक़्त की
उठती गिरती
लहरों से ।

©यशवन्त माथुर©

01 January 2013

कैसे करूँ स्वागत ?

भोर की पहली किरण
कहीं धुंध
और कहीं खिली धूप
कहीं चिड़ियों का चहचहाना
अपनी ही मस्ती मे
चलते जाना
गाते जाना
स्वागत गीत
कितने सारे
बिंबों के साथ
कितने सारे
चित्रों के साथ
कुछ वास्तविक
कुछ काल्पनिक
कुछ कविता
कुछ कहानी
और कुछ
उड़ते
बिखरते शब्दों का साथ
कर रहा है स्वागत
नव वर्ष का  !

पर
सुखांत के इन बिंबों मे
इन चित्रों मे
कविता मे
कहानी मे 
डाल पर बैठी
उस चिड़िया के गीतों मे
एक रूप
एक स्वर
एक मुस्कुराहट
एक खुशी
अगर 'उसकी'
भी होती ......
एक गीत
अगर
उसके भी मन का होता....
उसके अपनों का  होता....
तो कैसा होता ?
कितना अच्छा होता
नव वर्ष-
तुम्हारा स्वागत
आज के दिन !

अफसोस !
तुम आए हो
उस वक़्त 
जब
लाखों प्रार्थनाओं
की हार पर 
लाखों दुआओं
की हार पर
बे सिर पैर की
रार के बीच
छाया हुआ है
कुछ छद्म
और 
कुछ वास्तविक 
मौन
एक कोने से
दूसरे कोने तक
पत्थरों के भी
रूदन के बीच
नव वर्ष !
अब तुम्ही बता दो
कैसे करूँ
स्वागत ?

©यशवन्त माथुर©
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