23 January 2013

वो सीख चुकी है जीना.....

पल पल बदलते
मौसम के इन रंगों में
कभी धूप में
कभी छांव में
नहीं बदलता है
उसका मलिन
काला चेहरा
हाड़ कंपाने वाली ठंड ने
झुलसाने वाली धूप और लू ने 
बेशर्म अंधियों -तूफानों ने
नामर्द वक़्त की
ललचाई नज़रों ने
ठोक -पीट कर 
उस 'फुटपाथिया' को
सिखा दिया है जीना
कभी
मज़दूरनी बन कर
तो कभी
भिखारिन बन कर ।

©यशवन्त माथुर©

20 comments:

  1. सुन्दर प्रस्तुति!
    वरिष्ठ गणतन्त्रदिवस की अग्रिम शुभकामनाएँ और नेता जी सुभाष को नमन!

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  2. कदम कदम पर मिलते जीवन के अनुभवों से बड़ा गुरु और कोई नहीं ......सार्थक रचना ...!

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  3. जीना तो है ही...हर हाल में...
    मार्मिक रचना.

    सस्नेह
    अनु

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  4. उफ़ ! कितनी विषमता है समाज में..

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  5. वक्त के थपेड़े बहुत कुछ सिखला जाते हैं ..बहुत बढ़िया भावुकता भरी प्रस्तुति ..

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  6. वक़्त और हालात ..... :(
    ~God Bless!!!

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  7. बहुत खूब! लजवाब! आपकी अभिव्यक्ति बहुत सशक्त है।

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  8. बहुत खूब! लजवाब! आपकी अभिव्यक्ति बहुत सशक्त है।

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  9. नामर्द वक़्त की
    ललचाई नज़रों ने
    ठोक -पीट कर
    उस 'फुटपाथिया' को
    सिखा दिया है जीना
    कभी
    मज़दूरनी बन कर
    तो कभी
    भिखारिन बन कर ।

    अद्भुत निःशब्द करती भावनाए

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  10. ललचाई नज़रों ने
    ठोक -पीट कर
    उस 'फुटपाथिया' को
    सिखा दिया है जीना
    कभी
    मज़दूरनी बन कर
    तो कभी
    भिखारिन बन कर ।

    sunder bhavpurn abhivyakti
    rachana

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  11. ओह! मार्मिक!

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  12. कष्टदायक पर सत्य है ... शुभकामनायें आपको !

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  13. सुन्दर प्रस्तुति...

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  14. जीना ही नहीं सीखा बल्कि विषम परिस्थिति में भी बाधा से लड़ना भी सीखा।

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  15. कटु सत्य को कहती मार्मिक रचना

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  16. जीना तो है ही..चाहे कितनी भी विषम परिस्थिति हो...मार्मिक रचना

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  17. सशक्त और प्रभावशाली रचना.....

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