बसंत की
इस खिली धूप की तरह
बगीचों मे खिले फूलों की तरह
खुली और मंद हवा में
झूमते हुए
बाहर की दुनिया देखने को बेताब
मन के भीतर की
अनकही बातें
शैतान बच्चे की तरह
करने लगी हैं जिद्द
शब्दों और अक्षरों के
साँचे में ढल कर
कागज पर उतर जाने को
मेरी पेशानी पर
पड़ रहे हैं बल
दुविधा में
कहाँ से लाऊं
अनगिनत साँचे
और कैसे ढालूँ
बातों को
उनके मनचाहे आकार में
न मेरे पास चाक है
न ही कुम्हार हूँ
बस यूं ही
करता रहता हूँ कोशिश
गढ़ता रहता हूँ
टेढ़े-मेढ़े
बेडौल आकार
क्योंकि मेरे पास
कला नहीं
रस,छंद और अलंकार की।
©यशवन्त माथुर©
अति सुन्दर..
ReplyDeleteआपकी यह बेहतरीन रचना बुधवार 27/02/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जाएगी. कृपया अवलोकन करे एवं आपके सुझावों को अंकित करें, लिंक में आपका स्वागत है . धन्यवाद!
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुती
ReplyDeleteमेरी नई रचना
ये कैसी मोहब्बत है
खुशबू
बहुत सुन्दर ....
ReplyDeleteबहुत सुन्दर यशवंत भाई | बधाई |
ReplyDeleteTamasha-E-Zindagi
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प्राकृति से बड़ा कलाकार तो कोई नहीं ...
ReplyDeleteलाजबाब बेहतरीन रचना,,,,यशवंत जी बधाई ,,
ReplyDeleteRecent Post: कुछ तरस खाइये
मन अपने अनुसार शब्दों को ढाल ही देता है और बन जाती हैरचनाये, दिल की दिल तक....
ReplyDeleteमन अपने अनुसार शब्दों को ढाल ही देता है और बन जाती हैरचनाये, दिल की दिल तक....
ReplyDeleteबहुत खूब जनाब
ReplyDeleteआज की मेरी नई रचना जो आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार कर रही है
ये कैसी मोहब्बत है
खुशबू
खूबसूरत शब्द.
ReplyDeletesunder bhaav liye rachna.
ReplyDeletemera bhi yahi haal--
बस यूं ही
करता रहता हूँ कोशिश
गढ़ता रहता हूँ
टेढ़े-मेढ़े
बेडौल आकार
क्योंकि मेरे पास
कला नहीं
रस,छंद और अलंकार की।
shubhkamnayen