हर दिन
बहुत मेहनत से
बनाता हूँ मैं
रेत की इमारत
और उसे सजाता हूँ
नदी किनारे की
छोटी छोटी सीपियों से
कल्पना के घरौंदे से
बाहर निकल कर
वह इमारत
साकार तो हो जाती है
पर शाम होते होते
उसका होने लगता है
अंग भंग
और रात के ढलते ढलते
खो देती है
अपना अस्तित्व
बना देती है जगह
एक और
रेतीली
इमारत के लिये।
©यशवन्त माथुर©
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रेत की इमारत में जज्बातओर विश्वास का सीमेंट लगाना जरूरी है ... मजबूती तो तभी आती है ...
ReplyDeleteगहरा भाव ...
Bahu khoob
ReplyDelete"खो देती है
ReplyDeleteअपना अस्तित्व
बना देती है जगह
एक और
रेतीली
इमारत के लिये"......बहुत ही प्रभावी पंक्तियाँ
रेत की इमारत
ReplyDeleteऔर उसे सजाता हूँ
नदी किनारे की
छोटी छोटी सीपियों से
कल्पना के घरौंदे से
बाहर निकल कर
वह इमारत
साकार तो हो जाती है
such abeautiful style of creation AGAIN AND AGAIN INSPIRES.
बहुत सुन्दर | आभार
ReplyDeleteZindgi b isi tarah h...astitva roz bnta h...aur bigad b jata h
ReplyDelete"खो देती है
ReplyDeleteअपना अस्तित्व
बना देती है जगह
एक और
रेतीली
इमारत के लिये"......बहुत ही प्रभावी पंक्तियाँ
जो रेत का इमारत बनाने का हौसला रखते हैं ,
ReplyDeleteवही कंक्रीट का भी बना पाते हैं !!
कल्पनाएँ यूहीं बनती बिगड़ती हैं ..और समय की रेत पर नियति की लहरों से धराशयी होती रहती हैं ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना...
ReplyDeleteपर शाम होते होते
ReplyDeleteउसका होने लगता है
अंग भंग
और रात के ढलते ढलते
खो देती है
अपना अस्तित्व
बना देती है जगह
एक और
रेतीली
इमारत के लिये।
बहुत ही प्रभावी पंक्तियाँ
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sunder abhivyakti...sach hai mankebhavvonki udaanud to jati hai par...thah.....
ReplyDeleteshubhkamnayen
रेत के घरोंदों का टूटना उनकी नियति है ,पर होंसले बुलंद हों तो एक दिन वोह भी अपना अस्तित्व बनाये रखने को मजबूर हो जातें हैं
ReplyDelete.अच्छी रचना यशवंतजी.