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10 February 2013

आखिरी जवाब का एहसास.....

कितने ही सवालों के
कितने ही मोड़ों
और रास्तों से गुज़र कर
आखिरी जवाब
जब पाता है
खुद को 
किसी किताब के पन्नों पर
छपा हुआ
या मूंह से निकले शब्दों के साथ
घुल जाता है
हवा में -
तब
तीखी धूप में लहराती
खुद की काली परछाई बन कर
या घुप्प अंधेरे में
किसी कोर से झाँकती
रोशनी की लकीर बन कर
जीने का दे संबल कर
परिवर्धन की आस में
मिटने को उतावले -
सम्पादन को बावले
अक्षरों की संगत में
कराता है
खुद के होने का एहसास!

©यशवन्त माथुर©

8 comments:

  1. बहुत सुन्दर यशवंत भाई | बधाई

    Tamasha-E-Zindagi
    Tamashaezindagi FB Page

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  2. बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण प्रस्तुती।

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  3. सुन्दर रचना

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  4. भावपूर्ण ... जवाब का होना जरूरी है ...

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  5. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    --
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल सोमवार (11-02-2013) के चर्चा मंच-११५२ (बदहाल लोकतन्त्रः जिम्मेदार कौन) पर भी होगी!
    सूचनार्थ.. सादर!

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  6. सुंदर पंक्तियाँ...गहरी बात लिए हैं भाव

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