(1)
सोच
जितनी असीमित
और अनंत होती है
कभी कभी
लगा देती है
उतने ही अनंत
असीमित प्रश्न चिह्न
खुद के माथे पर
(2)
सोच
कभी
होती है
मिट्टी के मोल
और कभी
हीरे से भी महंगी
कभी तुलती है
टनों में
और कभी
रत्ती या छ्टांक में
फिर भी
बनाए रखती है
अपना अस्तित्व
बंद मुट्ठी के खुलते ही
बिखर जाती है
एक की
अनेक हो कर!
©यशवन्त माथुर©
sahi kaha...fir bhi soch ko hum soch kar bhi dur nahi bahaga sakte.....sundar rachna..
ReplyDeleteयही है सोच की करामात
ReplyDeleteसार्थक अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteशुभकामनायें !!
सच है ...सोच एक होकर भी असीमित है ....एक की होकर भी शब्दों में ढलते ही अनेकों को सोचने पर विवश कर देती है ...सुंदर ख़याल
ReplyDeletejyada mat sochiye ... bloodpressure badh jaayega aur hath kuchh nahin aayega
ReplyDeleteसुन्दर और सत्य |
ReplyDeleteहर सोच की अपनी महत्ता है ,,,,
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ,,,,
सच में विचारणीय यशवंत .....
ReplyDeleteवाह ..बहुत बढ़िया ..
ReplyDeleteबहुत उम्दा प्रस्तुति आभार
ReplyDeleteआज की मेरी नई रचना आपके विचारो के इंतजार में
अर्ज सुनिये
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