बचपन में
कभी
जिन गलियों से
गुज़रा करता था
वो गलियाँ
वो सड़कें
अब बन चुकी हैं
कहानी
एक बीते दौर की
और आज
जब भी करता हूँ याद
उन बीते पलों को
कबूतरखाने जैसा
यह ठौर
निकलने नहीं देता
खुद की जद से।
©यशवन्त माथुर©
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जीवन ने परिवर्तन तो होते ही रहते है वस यादें रह जाती है.
ReplyDeleteजीवन ने परिवर्तन तो होते ही रहते है वस यादें रह जाती है.
ReplyDeleteबढ़िया है प्रिय यशवंत-
ReplyDeleteपर निकलना तो पड़ता है .... सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteयशवंत जी ठीक कहा आपने आपका इंतज़ार है
ReplyDeletehttp://www.saadarblogaste.in/2013/03/15.html
कबूतरखाने जैसा
ReplyDeleteयह ठौर
निकलने नहीं देता
खुद की जद से।
बहुत ही गहरी बात !!
शुभकामनायें !!
Yaadein to hoti hi yad rakhne k liye h :)
ReplyDeleteबहुत सुन्दर.
ReplyDeleteKAVYA SUDHA (काव्य सुधा):
आपकी इस उत्कृष्ट पोस्ट की चर्चा बुधवार (06-02-13) के चर्चा मंच पर भी है | जरूर पधारें |
ReplyDeleteसूचनार्थ |
अतीत की सुनहली यादें हमें अक्सर घेर लेती हैं ...
ReplyDeleteसुन्दर रचना !
apni zaden bhi to hamne khud hi baandh rakhi hain na....
ReplyDeletebeshak vhi kijiye,jara soch samajh kar
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