सामने के पार्क से
गायब है
हर शाम को
क्रिकेट और
बेडमिंटन खेलते
बच्चों की रौनक
सबके सब
दुबके हुए हैं
कमरे की
दीवारों के भीतर
गायब है
रातों की नींद
और दिन का चैन
फिर भी
माँ-बाप
भाई और दीदी की
मार और फटकार झेलते
मोटी किताबों के
पन्ने पलटते
और कुछ ख्वाब सँजोते
जुते हुए हैं
कोल्हू के बैल की तरह
जुटे हुए हैं
नंबर गेम में
अव्वल आने को
विजय पाने को
स्कूल और बोर्ड की परीक्षा
पार लगाने को
पर ....
हर पल चलने वाली
जीवन की परीक्षा
क्या हो सकती है पार
इसी तरह
किताबों मे डूब कर ?
©यशवन्त माथुर©
बहुत ही सुन्दर और सार्थक कविता.
ReplyDeleteसुन्दर कविता
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल गुरूवार (07-03-2013) के “कम्प्यूटर आज बीमार हो गया” (चर्चा मंच-1176) पर भी होगी!
सूचनार्थ.. सादर!
किताबों डूबना भी मजबूरी है बच्चों की....सुंदर कविता
ReplyDeleteसुन्दर कविता। आभार। :)
ReplyDeleteनये लेख :- समाचार : दो सौ साल पुरानी किताब और मनहूस आईना।
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