एक फूल होता है
जो सुबह खिल कर
मुस्कुराता है
शाम होते होते
मुरझाता है
और गहरी रात के
आते आते
बिखर जाता है
मिल जाता है
यादों की धूल में ।
और एक काँटा होता है
जो अपने बीच में
पनाह देता है
खूबसूरत फूल को
जो अड़ा रहता है
अपनी ही ज़िद्द पर
जिसके भीतर
और बाहर
होती है
दर्द की तीखी चुभन
जो कभी हाथों को
चुभता है
और कभी दिलों को
संभाले रखता है खुद को
सुबह, दोपहर
और रात
स्थायित्व के साथ।
सोच रहा हूँ
किस की तरह बनूँ ?
फूल बनूँ ?
या काँटा ?
मेरी समझ में
नहीं आता।
~यशवन्त माथुर©
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Ramakant Singh
ReplyDeleteVERY CERTAINTHE WAY OF LIFE
indira mukhopadhyay
ReplyDeletebahut sundarta se abhivyakt kiya hai apni uljhan ko.
Kajal Kumar
ReplyDeleteतीनों ही रचनाएं बेहतर हैं. अंतिम अच्छी चुटीली है
Priti Dabral
ReplyDeletebahut achha likha hai
kante rehte hain adig se
samay se ruke se
par chubhte hai tees se
na bano tum kanta
Saras Darbari
ReplyDeleteकाँटे स्पर्श करने पर असहनीय पीड़ा भी देते हैं ...यह आप पर है आप किस पहलू को अपनाना चाहें
Snigdha Ghosh Roy
ReplyDeletekyu kisi aur ki tarah banne ka hai armaan...kuchh apni hi nayi panao pehchaan... jo phool na kar paaya aur kaanta na nibha paaye tum hi kar jao....
•
रूपचन्द्र शास्त्री मयंक
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति!
साझा करने के लिए धन्यवाद
sandhya sharma
ReplyDeleteस्थायित्व का साथ हो फूलों की खूबसूरती के साथ... सुन्दर भाव...
manav mehta
ReplyDeletebahut sunder
Anita Nihalani
ReplyDeleteजो दोनों में संतुलन करना जानता है, या दोनों के पार हो जाता है वही असलियत को जन पाता है..
ReplyDeleteRajendra Nath Mehrotra
Gulshan ki phakat Phoolon se nahi, Kanto se bhi zeenat hoti hai
vandana gupta
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार (27 -4-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
सूचनार्थ!
Kavita Rawat
ReplyDeleteफूल के साथ कांटा हिफाज़त का काम करता है ..साथ साथ अच्छे लेकिन अलग अच्छे नहीं ..
बहुत बढ़िया रचना
Rewa tibrewal
ReplyDeletejes luved to read this post of urs
Rajendra Kumar
ReplyDeleteबहुत खूब! बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति
Kailash Sharma
ReplyDeleteबहुत सुन्दर रचना...
Virendra Kumar Sharma
ReplyDeleteसुख दुख में सम भाव बनो
Nidhi Tandon
ReplyDeleteजैसे हो वैसे ही रहो..किसी की तरह मत बनो .
बढ़िया...यशवंत
तुषार राज रस्तोगी
ReplyDeleteबढ़िया |
sadhana vaid
ReplyDeleteआपकी रचना ने एक शेर की याद दिला दी --
रफीकों से रकीब अच्छे जो जल कर नाम लेते हैं
गुलों से खार अच्छे हैं जो दामन थाम लेते हैं !
स्थायित्व तो काँटों में ही होता है पर खुद को मिटा कर औरों तक खुशबू फैलाने का जज़्बा सिर्फ फूलों में ही होता है ! आप क्या चाहते हैं यह तो आप ही जान सकते हैं ! बहुत सुंदर रचना !
sangeeta swarup
ReplyDeleteसाधनजी ने सही सुझाव दिया है .... अच्छी प्रस्तुति संशय छोड़ जो चाहते हैं बनिए ।
rajkumar soni
ReplyDeleteबहुत अच्छी रचना है। बधाई..।
Pravesh Soni
ReplyDeletebahut achha likha ...kaanto ki bhi ahmiyat hoti hai na jaane kyu unhe sab chubhan bhari drashti se hi dekhte hai
Narendra Parihar
ReplyDeletekanta baniye phoolon ke raste khud aapka swagat karenge