इस गहराती काली रात में
झुरमुटों में छुपे चाँद तारे कहाँ हैं ?
कंक्रीट की जगमग बस्ती में
झींगुरों के गीत और सन्नाटे कहाँ हैं ?
ढूंढ रहा हूँ जुगनू अगर मिल जाएँ तो पूछूं
नाम भर के अँधेरों में उनके बसेरे कहाँ हैं ?
पूनम भी ढूंढती है मावस की तन्हाई
ठंडी हवा में झूमते फूल पत्ते कहाँ हैं ?
झुरमुट हुए अब बीते दौर की बातें
उजली हैं रातें और दिल काले यहाँ हैं।
~यशवन्त माथुर©
लखनऊ-28/05/2013
10:50 रात्रि
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28 May 2013
कहाँ हैं .......?
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
27 May 2013
बिजली
चित्र साभार-:http://www.deshbandhu.co.in/ |
धर्म है बिजली।
कटिया कर्म का,
मर्म है बिजली।
बिजली जीवन,
मृत्यु बिजली।
बिजली दाद,
खाज और खुजली।
बिजली त्राही,
परिहास है बिजली।
बिजली मान,
उपहास है बिजली।
बिजली पानी की मोटर है,
बिजली ए सी और कूलर है।
बिजली ब्लॉग, फेसबुक है बिजली,
बिजली मोबाइल और कंप्यूटर है।
बिजली त्रिदेवों की शक्ति है,
बिजली आसक्ति और भक्ति है।
बिजली सुबह, शाम है बिजली,
रातों का आराम है बिजली।
बिजली जाती बिजली आती,
कभी रूलाती कभी हँसाती।
गली गली का शोर है बिजली,
बिजली- बिजली, बिजली- बिजली।
देखो बहुत घनघोर है बिजली।।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
24 May 2013
तस्वीर जैसा इंसान
तस्वीर
एक ही होती है
और पहलू दो होते हैं
एक अच्छा लगता है
और सामने दिखता रहता है
दूसरा दीवार से चिपक कर
अंधेरे में रहता है
इंसान भी
तस्वीर की तरह होता है
एक पहलू दिखता है
जो अच्छा लगता है कभी
और कभी खराब दिखता है
और दूसरा पहलू
गुमनाम रह कर
देता रहता है आधार
कल,आज और कल को।
~यशवन्त माथुर©
एक ही होती है
और पहलू दो होते हैं
एक अच्छा लगता है
और सामने दिखता रहता है
दूसरा दीवार से चिपक कर
अंधेरे में रहता है
इंसान भी
तस्वीर की तरह होता है
एक पहलू दिखता है
जो अच्छा लगता है कभी
और कभी खराब दिखता है
और दूसरा पहलू
गुमनाम रह कर
देता रहता है आधार
कल,आज और कल को।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
21 May 2013
सवाल
कई दिन से 'सवाल' शब्द मेरे पीछे पड़ा था ,आज कुछ सोचते सोचते यह बेतुकी भी लिख ही दी :)
सवाल इस बात का नहीं
कि सवाल क्या है
सवाल इस बात का है
कि सवाल ,
सवाल ही क्यों है
सवाल सच में
किसी बवाल से कम नहीं
वह बवाल ही क्या
कि जिसमे सवाल ही गुम है
सवाल इस बात का नहीं
सवाल का जवाब क्या है
सवाल इस बात का है
कि हकीकत क्या है,
ख्वाब क्या है
सवाल घुमड़ रहा है
उमड़ रहा है
कई दिनों से मेरे मन में
सवाल को ही पता नहीं
कि सवाल का जड़ मूल क्या है
उलझा के उलझ गया हूँ
अब अपने ही हाल में
जाने क्यों फंस गया हूँ
इन सवालों के जाल में।
~यशवन्त माथुर©
सवाल इस बात का नहीं
कि सवाल क्या है
सवाल इस बात का है
कि सवाल ,
सवाल ही क्यों है
सवाल सच में
किसी बवाल से कम नहीं
वह बवाल ही क्या
कि जिसमे सवाल ही गुम है
सवाल इस बात का नहीं
सवाल का जवाब क्या है
सवाल इस बात का है
कि हकीकत क्या है,
ख्वाब क्या है
सवाल घुमड़ रहा है
उमड़ रहा है
कई दिनों से मेरे मन में
सवाल को ही पता नहीं
कि सवाल का जड़ मूल क्या है
उलझा के उलझ गया हूँ
अब अपने ही हाल में
जाने क्यों फंस गया हूँ
इन सवालों के जाल में।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
20 May 2013
'समर' के इस समर में
'समर' के इस समर में
संभल संभल के चलना है
सर पे टोपी या अंगोछा
साथ मे पानी पीते रहना है
यह मौसम है लू का
तपती धूप का मेरे लिये
घर की ठंडक में दुबक कर
हर दुपहर को सोना है
बस आज निकला जो घर से बाहर
तो हर 'अक्सर' की तरह देखा
मजदूर के बच्चों को तो
अंगारों पे ही रहना है
मेरे पैरों मे पड जाते हैं
चलते चलते छाले
पैरों में 'कुशन' की चप्पल
पहन कर के ही निकलना है
'समर' के इस समर में
संभल संभल के चलना है
कहीं तर बतर गले हैं
कहीं सूखते हलक को जीना है।
['समर'=summer=गर्मी]
~यशवन्त माथुर©
संभल संभल के चलना है
सर पे टोपी या अंगोछा
साथ मे पानी पीते रहना है
यह मौसम है लू का
तपती धूप का मेरे लिये
घर की ठंडक में दुबक कर
हर दुपहर को सोना है
बस आज निकला जो घर से बाहर
तो हर 'अक्सर' की तरह देखा
मजदूर के बच्चों को तो
अंगारों पे ही रहना है
मेरे पैरों मे पड जाते हैं
चलते चलते छाले
पैरों में 'कुशन' की चप्पल
पहन कर के ही निकलना है
'समर' के इस समर में
संभल संभल के चलना है
कहीं तर बतर गले हैं
कहीं सूखते हलक को जीना है।
['समर'=summer=गर्मी]
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
18 May 2013
उल्टी दिशा में
पुरानी किताब के
गलते पन्नों की
धुंधलाती इबारतें
कभी कभी
सामने आ जाती हैं
अपने चटख रंग में
जब उन के बीच
कहीं दबा हुआ
पुराना सूखा फूल
ज़मीन पर गिर कर
ले चलता है समय को
उल्टी दिशा में।
~यशवन्त माथुर©
गलते पन्नों की
धुंधलाती इबारतें
कभी कभी
सामने आ जाती हैं
अपने चटख रंग में
जब उन के बीच
कहीं दबा हुआ
पुराना सूखा फूल
ज़मीन पर गिर कर
ले चलता है समय को
उल्टी दिशा में।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
16 May 2013
मैं कौन हूँ ?
सोच रहा हूँ
मैं कौन हूँ ?
हाड़ -माँस के खोल में छुपी
एक आत्मा
या मिट्टी से बना
एक सजीव शरीर ....
या आत्मा और शरीर
दोनों ही हूँ ?
मैं आध्यात्मिक नहीं
न ही धार्मिक हूँ
मुझे दर्शन की समझ नहीं
न कल्पना हूँ,
न वास्तविक हूँ
मुझे रूचि नहीं
रहस्य और रोमांच में
मुझे रूचि नहीं
शस्त्र में न शास्त्र में
बस मौन के
चक्रव्यूह में उलझा
खुद से
खुद का ही एक प्रश्न हूँ
मैं कौन हूँ ?
~यशवन्त माथुर©
मैं कौन हूँ ?
हाड़ -माँस के खोल में छुपी
एक आत्मा
या मिट्टी से बना
एक सजीव शरीर ....
या आत्मा और शरीर
दोनों ही हूँ ?
मैं आध्यात्मिक नहीं
न ही धार्मिक हूँ
मुझे दर्शन की समझ नहीं
न कल्पना हूँ,
न वास्तविक हूँ
मुझे रूचि नहीं
रहस्य और रोमांच में
मुझे रूचि नहीं
शस्त्र में न शास्त्र में
बस मौन के
चक्रव्यूह में उलझा
खुद से
खुद का ही एक प्रश्न हूँ
मैं कौन हूँ ?
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
15 May 2013
मन का गुलाम
मजबूरी है
मेरे लिये
बने रहना
मन का गुलाम
यूं तो हैं कई काम
जिंदगी के इस मेले में
कुछ स्याह कुछ सफ़ेद पल
कभी मनाते हैं उत्सव
और कभी छेड़ते हैं
निराशा की बेसुरी तान
इनमें से ही कुछ
देख सुन और समझ कर
मन बोलता रहता है
चाहे अनचाहे
सुनाता रहता है
कुछ बातें .....
जो उतरती रहती हैं
वर्तमान, भूत
और भविष्य की कलम से
कागज़ के बेहोश पन्नों पर
मैं चाहता भी नहीं हूँ
आज़ाद होना
मन की इस गुलामी से
क्योंकि
मन की बेड़ियों में जकड़कर भी
उड़ता रहता हूँ
शून्य और अनंत की
ऊंचाईयों पर।
~यशवन्त माथुर©
मेरे लिये
बने रहना
मन का गुलाम
यूं तो हैं कई काम
जिंदगी के इस मेले में
कुछ स्याह कुछ सफ़ेद पल
कभी मनाते हैं उत्सव
और कभी छेड़ते हैं
निराशा की बेसुरी तान
इनमें से ही कुछ
देख सुन और समझ कर
मन बोलता रहता है
चाहे अनचाहे
सुनाता रहता है
कुछ बातें .....
जो उतरती रहती हैं
वर्तमान, भूत
और भविष्य की कलम से
कागज़ के बेहोश पन्नों पर
मैं चाहता भी नहीं हूँ
आज़ाद होना
मन की इस गुलामी से
क्योंकि
मन की बेड़ियों में जकड़कर भी
उड़ता रहता हूँ
शून्य और अनंत की
ऊंचाईयों पर।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
14 May 2013
वह तस्वीर......
बहुत वक़्त से
देखता रहता था
मैं
दीवार पर टंगी
उस तस्वीर को
न जाने कब से टंगी थी
घर के कोने के
उस अंधेरे कमरे में
गर्द की
एक मोटी परत
रुई धुनी रज़ाई की तरह
लिपटी हुई थी
उस तस्वीर से
पर आज .....
पर आज
मन नहीं माना मेरा
उत्सुकता
और रहस्य के चरम ने
रोशन कर ही दिया
अंधेरे कमरे को
और
फिरा ही दिये हाथ
उस तस्वीर पर
गर्द के आवरण में
वह तस्वीर नहीं
एक पुराना शीशा था
जिसमें
अब देख सकता हूँ मैं
परावर्तित होती
खुद की
नयी तस्वीर।
~यशवन्त माथुर©
देखता रहता था
मैं
दीवार पर टंगी
उस तस्वीर को
न जाने कब से टंगी थी
घर के कोने के
उस अंधेरे कमरे में
गर्द की
एक मोटी परत
रुई धुनी रज़ाई की तरह
लिपटी हुई थी
उस तस्वीर से
पर आज .....
पर आज
मन नहीं माना मेरा
उत्सुकता
और रहस्य के चरम ने
रोशन कर ही दिया
अंधेरे कमरे को
और
फिरा ही दिये हाथ
उस तस्वीर पर
गर्द के आवरण में
वह तस्वीर नहीं
एक पुराना शीशा था
जिसमें
अब देख सकता हूँ मैं
परावर्तित होती
खुद की
नयी तस्वीर।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
13 May 2013
तो अच्छा है -(500 वीं पोस्ट)
ये बचपन की
मासूम सी मुस्कुराहट
बनी रहे यूं ही
तो अच्छा है
यूं तो खुदा की नेमत हूँ
माँ-पापा की गोद में
वह भी मुसकुराते रहें
तो अच्छा है
ये दौर न जाने कहाँ
दौड़ा कर ले जाएगा
दिन बीतते जाएंगे और
बचपन याद आएगा
खामोशी रोज़ ही टूटे
तो अच्छा है
ये मुस्कुराहट कभी न छूटे
तो अच्छा है
अच्छा है मुसकुराता रहे
ये पूनम का चाँद
मावस कभी न हो यहाँ
तो अच्छा है।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
11 May 2013
नहीं......
लू के गरम थपेड़ों में
कहीं पेड़ों की छांह नहीं
सूखते प्यासे हलक तरसते
कहीं प्याऊ की राह नहीं
पुण्य कमाने की लोगों में
अब दिखती कोई चाह नहीं
सड़क किनारे के मॉलों में
फटेहालों की परवाह नहीं
'वाटर पार्कों' में पानी बहता
बिन धुली कारों की शान नहीं
कंक्रीट की छतों पे टंकी रिसती
बिन एसी -कूलर मकान नहीं
लिखना कहना काम है अपना
समझने का कोई दबाव नहीं
हम तो पीते रोज़ ही शर्बत
फुटपाथियों का कोई भाव नहीं
लू के गरम थपेड़ों में
कहीं पेड़ों की छांव नहीं
गरम पसीना अपना साथी
जीवन जीना आसान नहीं
~यशवन्त माथुर©
कहीं पेड़ों की छांह नहीं
सूखते प्यासे हलक तरसते
कहीं प्याऊ की राह नहीं
पुण्य कमाने की लोगों में
अब दिखती कोई चाह नहीं
सड़क किनारे के मॉलों में
फटेहालों की परवाह नहीं
'वाटर पार्कों' में पानी बहता
बिन धुली कारों की शान नहीं
कंक्रीट की छतों पे टंकी रिसती
बिन एसी -कूलर मकान नहीं
लिखना कहना काम है अपना
समझने का कोई दबाव नहीं
हम तो पीते रोज़ ही शर्बत
फुटपाथियों का कोई भाव नहीं
लू के गरम थपेड़ों में
कहीं पेड़ों की छांव नहीं
गरम पसीना अपना साथी
जीवन जीना आसान नहीं
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
10 May 2013
ऐसा ही है.....
कभी जैसा हुआ करता था जो
अब नहीं वो वैसा ही है
बदलते वक़्त में सब कुछ
अब तो ऐसा ही है
कभी चलते थे आना पाई
दौड़ता-चलता तो अब रुपया ही है
एक अरब के इस प्रदेश में
राजा वहीं पर रंक वही है
कभी 'इन्सान' हुआ करता था जो
दिखता तो अब भी वैसा ही है
दिल की सफेदी मे अब काला कुछ कुछ
मशीन में कार्बन जमता ही है
सब कुछ तो बस ऐसा ही है
सब कुछ तो बस चलता ही है
कल आज और कल की फितरत
अपना तो सर घूमता ही है।
~यशवन्त माथुर©
अब नहीं वो वैसा ही है
बदलते वक़्त में सब कुछ
अब तो ऐसा ही है
कभी चलते थे आना पाई
दौड़ता-चलता तो अब रुपया ही है
एक अरब के इस प्रदेश में
राजा वहीं पर रंक वही है
कभी 'इन्सान' हुआ करता था जो
दिखता तो अब भी वैसा ही है
दिल की सफेदी मे अब काला कुछ कुछ
मशीन में कार्बन जमता ही है
सब कुछ तो बस ऐसा ही है
सब कुछ तो बस चलता ही है
कल आज और कल की फितरत
अपना तो सर घूमता ही है।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
08 May 2013
क्या 'ऐसा' शिक्षक हो सकता है ?
मोटा वेतन शिक्षक का
सब ऊंट के मुँह में जीरा है
मुफ्त की नौकरी बैठे ठाले
फिर भी हरदम पीड़ा है
स्कूल सरकारी देर से खुलता
मैदानों में कचरा उड़ता
फटी कटी सी टाट पट्टी पर
खुली किताब, पर कुछ न बूझता
वक़्त परीक्षा का; प्रश्नपत्र
जो बनाता वो ही उत्तर लिखता
जिसको पढना उसकी किस्मत
और अकल पर भूसा भरता
रोज़ रोज़ आंदोलन-जाम
विधान भवन रोज़ सिसकता है
जिसके हाथ में भविष्य कल का
क्या 'ऐसा' शिक्षक हो सकता है ?
~यशवन्त माथुर©
सब ऊंट के मुँह में जीरा है
मुफ्त की नौकरी बैठे ठाले
फिर भी हरदम पीड़ा है
स्कूल सरकारी देर से खुलता
मैदानों में कचरा उड़ता
फटी कटी सी टाट पट्टी पर
खुली किताब, पर कुछ न बूझता
वक़्त परीक्षा का; प्रश्नपत्र
जो बनाता वो ही उत्तर लिखता
जिसको पढना उसकी किस्मत
और अकल पर भूसा भरता
रोज़ रोज़ आंदोलन-जाम
विधान भवन रोज़ सिसकता है
जिसके हाथ में भविष्य कल का
क्या 'ऐसा' शिक्षक हो सकता है ?
~यशवन्त माथुर©
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बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
06 May 2013
मैं काँटा हूँ .....
काँटों की तरह हाथों को
कभी चुभता हूँ मैं
दुश्मन की तरह नज़रों को
कभी खटकता हूँ मैं
मुझ में नमी नहीं
शुष्कता समाई हुई है
मुझे छू कर गुजरती
हवा भी गरमाई हुई है
फूल की तरह न शाम को
कभी बिखरता हूँ मैं
हर खास ओ आम को
तीखा लगता हूँ मैं
मैं सच में काँटा हूँ
काँटा ही बने रह कर
कभी खुद को भी चुभ कर
खुद को ही खटकता हूँ मैं।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
04 May 2013
समाजवाद और महर्षि कार्लमार्क्स
कार्ल मार्क्स के जन्म दिवस (5 मई) पर प्रस्तुत है मेरे पिता जी श्री विजय माथुर का यह आलेख-
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समाजवाद और महर्षि कार्लमार्क्स
जब-जब धरा विकल होती,मुसीबत का समय आता।
किसी न किसी रूप में कोई न कोई महामानव चला आता॥
ये पंक्तियाँ महर्षि कार्ल मार्क्स पर पूरी तरह खरी उतरती हैं.मार्क्स का आविर्भाव एक ऐसे समय में हुआ जब मानव द्वारा मानव का शोषण अपने निकृष्टतम रूप में भयावह रूप धारण कर चुका था.औद्योगिक क्रान्ति के बाद जहाँ समाज का धन-कुबेर वर्ग समृद्धि की बुलंदियां छूता चला जा रहा था वहीं दूसरी ओर मेहनत करके जीवन निर्वाह करने वाला गरीब मजदूर और फटे हाल होता जा रहा था,यह परिस्थिति यूरोप में तब आ चुकी थी और भारत तब तक सामन्तवाद में पूरी तरह जकड चुका था.हमारे देश में जमींदार भूमिहीन किसानों पर बर्बर अत्याचार कर रहे थे.
Man is the product of his Environment .
मार्क्स का पितृ देश जर्मन था,परन्तु उन्हें निर्वासित होकर इंग्लैण्ड में अपना जीवन यापन करना पड़ा.जर्मन के लोग सदा से ही चिंतन-मनन में अन्य यूरोपीय समाजों से आगे रहे हैं और उन पर भारतीय चिंतन का विशेष प्रभाव पड़ा है.मैक्समूलर सा :तीस वर्ष भारत में रहे और संस्कृत का अध्ययन करके वेद,वेदान्त,उपनिषद और पुरानों की तमाम पांडुलिपियाँ तक प्राप्त करके जर्मन वापिस लौटे.मार्क्स जन्म से ही मेधावी रहे उन्होंने मैक्समूलर के अध्ययन का भरपूर लाभ उठाया और समाज व्यवस्था के लिए नए सिद्धांतों का सृजन किया.
मार्क्स का तप और त्याग
हालांकि एक गरीब परिवार में जन्में और कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा,परन्तु मार्क्स ने हार नहीं मानी,उन्होंने अपने कठोर तपी जीवन से गहन अध्ययन किया.समाज के विकास क्रम को समझा और भावी समाज निर्माण के लिए अपने निष्कर्षों को निर्भीकता के साथ समाज के सम्मुख रखा.व्यक्तिगत जीवन में अपने से सात वर्ष बड़ी प्रेमिका से विवाह करने के लिए भी उन्हें सात वर्ष तप-पूर्ण प्रतीक्षा करनी पडी.उनकी प्रेमिका के पिता जो धनवान थे मार्क्स को बेहद चाहते थे और अध्ययन में आर्थिक सहायता भी देते थे पर शायद अपनी पुत्री का विवाह गरीब मार्क्स से न करना चाहते थे.लेकिन मार्क्स का प्रेम क्षण-भंगुर नहीं था उनकी प्रेमिका ने भी मार्क्स की तपस्या में सहयोग दिया और विवाह तभी किया जब मार्क्स ने चाहा.विवाह के बाद भी उन्होंने एक आदर्श पत्नी के रूप में सदैव मार्क्स को सहारा दिया.जिस प्रकार हमारे यहाँ महाराणा प्रताप को उनकी रानी ने कठोर संघर्षों में अपनी भूखी बच्चीकी परवाह न कर प्रताप को झुकने नहीं दिया ठीक उसी प्रकार मार्क्स को भी उनकी पत्नी ने कभी निराश नहीं होने दिया.सात संतानों में से चार को खोकर और शेष तीनों बच्चियों को भूख से बिलखते पा कर भी दोनों पति-पत्नी कभी विचलित नहीं हुए और आने वाली पीढ़ियों की तपस्या में लीं रहे.देश छोड़ने पर ही मार्क्स की मुसीबतें कम नहीं हो गईं थीं,इंग्लैण्ड में भी उन्हें भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता था.लाईब्रेरी में अध्ययनरत मार्क्स को समय समाप्त हो जाने पर जबरन बाहर निकाला जाता था.
बेजोड़ मित्र
इंग्लैण्ड के एक कारखानेदार एन्जेल्स ने मार्क्स की उसी प्रकार सहायता की जैसी सुग्रीव ने राम को की थी.एन्जेल्स धन और प्रोत्साहन देकर सदैव मार्क्स के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर खड़े रहे.मार्क्स का दर्शन इन्हीं दोनों के त्याग का प्रतिफल है.विपन्नता और संकटों से झूजते मार्क्स को सदैव एन्जेल्स ने आगे बढ़ते रहने में सहायता की और जिस प्रकार सुग्रीव के सैन्य बल से राम ने साम्राज्यवादी रावण पर विजय प्राप्त की थी.ठीक उसी प्रकार मार्क्स ने एन्जेल्स के सहयोग बल से शोषणकारी -उत्पीडनकारी साम्राज्यवाद पर अपने अमर सिद्धांतों से विजय का मार्ग प्रशस्त किया.गरीब और बेसहारा लोगों के मसीहा के रूप में मार्क्स और एन्जेल्स तब तक याद किये जाते रहेंगें जब तक आकाश में सूरज-चाँद और तारे दैदीप्यमान रहेंगें.
भारतीय संस्कृति और मार्क्सवाद
हमारे प्राच्य ऋषि-मुनियों नें 'वसुधैव कुटुम्बकम'का नारा दिया था,वे समस्त मानवता में समानता के पक्षधर थे और मनुष्य द्वारा मनुष्य के उत्पीडन और शोषण के विरुद्ध.यही सब कुछ मार्क्स ने अपने देश -काल की परिस्थितियों के अनुरूप नए निराले ढंग से कहा है.कुछ विद्वान मार्क्स के दर्शन को भारतीय वांग्मयके अनुरूप मानते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि,मार्क्सवाद भारतीय संस्कृति में ही सही ढंग से लागू हो सकता है.यूरोप में मार्क्स के दर्शन पर क्रांतियाँ हुईं और मजदूर वर्ग की राजसत्ता स्थापित हुयी और वहां शोषण को समाप्त करके एक संता पर आधारित समाज संरचना हुयी,परन्तु इस प्रक्रिया में यूरोपीय संस्कृति के अनुरूप मार्क्स के अनुयाई शासकों से कुछ ऐसी गलतियां हुईं जो मार्क्स और एन्जेल्स के दर्शन से मेल नहीं खातीं थीं.रूसी राष्ट्रपति मिखाईल गोर्बाचोव ने इस कमी को महसूस किया और सुधारवादी कार्यक्रम लागू कर दिया जिससे समाज मार्क्स-दर्शन का वास्तविक लाभ उठा सके.यूरोप के ही कुछ शासकों ने सामंती तरीके से इसका विरोध किया,परिणामस्वरूप उन्हें जनता के कोप का भाजन बनना पडा.आज विश्व के आधे क्षेत्रफल और एक तिहाई आबादी में मार्क्सवादी शासन सत्ता विद्यमान है जो सतत प्रयास द्वारा जड़ता को समाप्त कर यथार्थ मार्क्सवाद की ओर बढ़ रही है.
स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि,नास्तिक वह नहीं है जिसका ईश्वर पर विशवास नहीं है,बल्कि' नास्तिक वह है जिसका अपने ऊपर विशवास नहीं है' मार्क्सवाद बेसहारा गरीब मेहनतकश वर्ग को अपने ऊपर विशवास करने की प्रेरणा देता है.विवेकानंद ने यह भी कहा था जब तक संसार में झौंपडी में निवास करने वाला हर आदमी सुखी नहीं होता यह संसार कभी सुखी नहीं होगा.मार्क्स ने जिस समाज-व्यवस्था का खाका प्रस्तुत किया उसमें सब व्यक्ति सामान होंगें और प्रत्येक व्यक्ति से उसकी क्षमता व योग्यतानुसार काम लिया जाएगा और प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकतानुसार दिया जाएगा जिससे उसका बेहतर जीवन निर्वाह हो सके.श्री कृष्ण ने भी गीता में यही बताया कि,मनुष्य को लोभवश परिग्रह नहीं करना चाहिए,अर्थात किसी मनुष्य को अपनी आवश्यकता से अधिक कुछ नहीं रखना चाहिए.यह आवश्यकता से अधिक रखने की लालसा अर्थात कृष्ण के बताये गए अपरिग्रह मार्ग का अनुसरण न करना ही शोषण है.और इसी शोषण को समाप्त करने का मार्ग मार्क्स ने आधुनिक काल में हमें दिखाया है.
भारत में गलत धारणा
हमारे देश में साधन सम्पन्न शोषक वर्ग ने धर्म की आड़ में मार्क्सवाद के प्रति विकृत धारणा का पोषण कर रखा है जब कि यह लोग स्वंय ही 'धर्म से अनभिग्य 'हैं.प्रसिद्ध संविधान शास्त्री और महात्मा गांधी के अनुयाई डा. सम्पूर्णानन्द ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा है :-सत्य,अहिंसा,अस्तेय,अपरिग्रहऔर ब्रह्मचर्य के समुच्य का नाम है-धर्म.अब देखिये यह सोचने की बात है कि,धर्म की दुहाई देने वाले इन पर कितना आचरण करते हैं.यदि समाज में शोषण विहीन व्यवस्था ही स्थापित हो जाए जैसा कि ,मार्क्स की परिकल्पना में-
सत्य-पूंजीपति शोषक वर्ग सत्य बोल और उस पर चल कर समृद्धत्तर नहीं हो सकता .
अहिंसा-मनसा-वाचा-कर्मणा अहिंसा का पालन करने वाला शोषण कर ही नहीं सकता.
अस्तेय-अस्तेय का पालन करके पूंजीपति वर्ग अपनी पूंजी नष्ट कर देगा.गरीब का हक चुराकर ही धनवान की पूंजी सृजित होती है.
अपरिग्रह-जिस पर वेदों से लेकर श्रीकृष्ण और स्वामी विवेकानन्द सभी मनीषियों ने ज्यादाजोर दिया यदि समाज में अपना लिया जाए तो कोई किसी का हक छीने ही नहीं और स्वतः समानता स्थापित हो जाए.
ब्रह्मचर्य-जिसकी जितनी उपेक्षा पूंजीपति वर्ग में होती है ,गरीब तबके में यह संभव ही नहीं है.अपहरण,बलात्कार और वेश्यालय पूंजीपति समाज की संतुष्टि का माध्यम हैं.
आखिर फिर क्यों धर्म का आडम्बर दिखा कर पूंजीपति वर्ग जनता को गुमराह करता है?ज़ाहिर है कि,ऐसा गरीब और शोषित वर्ग को दिग्भ्रमित करने के लिए किया जाता है,जिससे धर्म की आड़ में शोषण निर्बाध गति से चलता रहे.
कसूरवार मार्क्सवादी भी हैं
हमारे देश में धर्म का अनर्थ करके जहां पूंजीपति वर्ग शोषण को मजबूत कर लेता है;वहीं साम्राज्यवादी उसे इसके लिए प्रोत्साहित करते हैं जबकि मार्क्स के अनुयायी अंधविश्वास में जकड कर और शब्द जाल में फंस कर भारतीय जनता को भारतीय संस्कृति और धर्म से परिचित नहीं कराते.ऐसा करना वे मार्क्सवाद के सिद्धांतों के विपरीत समझते हैं.और यही कारण है अपनी तमाम लगन और निष्ठा के बावजूद भारत में मार्क्सवाद को विदेशी विचार-धारा समझा जाता है और यही दुष्प्रचार करके साम्राज्यवादी-साम्प्रदायिक शक्तियां विभिन्न धर्मों के झण्डे उठा कर जनता को उलटे उस्तरे से मूढ़ती चली जा रहीं हैं.इस परिस्थिति के लिए १९२५ से आज तक का हमारा मार्क्सवादी आन्दोलन स्वंय जिम्मेदार है.
अब समय आ गया है
जब हम प्रति वर्ष २२अप्रैल से ०५ मई तक मार्क्सवाद-लेनिनवाद के सिद्धांतों को भारतीय संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में 'चेतना पक्ष' के रूप में मनाएं और स्वंय मार्क्स के अनुयाई भी भारतीय वांग्मय के अनुकूल भाषा-शैली अपना कर राष्ट्र को प्राचीन 'वसुधैव कुटुम्बकम'की भावना फैलाने के लिए महर्षि कार्ल मार्क्स की चेतना से अवगत कराएं,अन्यथा फिर वही 'ढ़ाक के तीन पात'.
~विजय माथुर ©
(05 मई जयंती के अवसर पर 1990 में आगरा से प्रकाशित साप्ताहिक समाचार पत्र 'सप्तदिवा' में पूर्व प्रकाशित)
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
03 May 2013
अगर वो पाक होता.....
अगर वो पाक होता
तो क्यों नापाक होता
मगर वो नापाक है
तो और क्या करता
वो सोता नहीं हमारी तरह
'मौन' की चादर में
'चीन' छीन कर चैन*
न यूं ही अड़ा होता
एक अरब में एक 'सरब'
गर उसके मोल को समझा होता
अपना लड़का अपने घर को
आज न 'ऐसे' लौटा होता
न मंज़र दर्दनाक होता
न दौर शर्मनाक होता
अगर वो पाक होता,
तो क्यों नापाक होता ?
~यशवन्त माथुर©
----
*छीन छीन कर चैन भी पढ़ सकते हैं
तो क्यों नापाक होता
मगर वो नापाक है
तो और क्या करता
वो सोता नहीं हमारी तरह
'मौन' की चादर में
'चीन' छीन कर चैन*
न यूं ही अड़ा होता
एक अरब में एक 'सरब'
गर उसके मोल को समझा होता
अपना लड़का अपने घर को
आज न 'ऐसे' लौटा होता
न मंज़र दर्दनाक होता
न दौर शर्मनाक होता
अगर वो पाक होता,
तो क्यों नापाक होता ?
~यशवन्त माथुर©
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*छीन छीन कर चैन भी पढ़ सकते हैं
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
02 May 2013
रंग दूँ बे रंग फूलों को
(चित्र:प्रियंका जी की फेसबुक वॉल से ) |
रंग दूँ
बे रंग फूलों को
जिनमें हो ताजगी
और हमेशा मुस्कुराहट हो
इनकी खुशबू में डूबी हुई
महकती फिज़ाओं में
बसंत भी ज़िद्द करे
बस यहीं ठहर जाने को
खुशियों के रंग से
रंग दूँ
बे रंग फूलों को
और अपनी दुनिया में
हंसती रहूँ
काँटों से पार पाने को ।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
01 May 2013
नींव और मजदूर-मई दिवस विशेष
एक जैसे ही होते हैं
नींव और मजदूर
दोनों ही होते हैं आधार
दोनों ही सहते हैं
तरक्की का हर वार
दोनों ही देते हैं
ऊंचाई और चमक
उन पर टिकी होती हैं
आसमान से बतियाती
इमारतें
उन से ही हम सुनते हैं
प्रतिशत विकास की
आहटें
दोनों ही होते हैं गुमनाम
शीत
गर्मी और बरसात से बेखबर
रखते हैं बदलावों से
बा खबर
एहसान फरामोश
दुनिया को।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
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