06 May 2013

मैं काँटा हूँ .....


काँटों की तरह हाथों को
कभी चुभता हूँ मैं
दुश्मन की तरह नज़रों को
कभी खटकता हूँ मैं

मुझ में नमी नहीं
शुष्कता समाई हुई है
मुझे छू कर गुजरती
हवा भी गरमाई हुई है

फूल की तरह न शाम को
कभी बिखरता हूँ मैं
हर खास ओ आम को
तीखा लगता हूँ मैं

मैं सच में काँटा हूँ
काँटा ही बने रह कर
कभी खुद को भी चुभ कर
खुद को ही खटकता हूँ मैं। 

 ~यशवन्त माथुर©

13 comments:

  1. yashoda agrawal
    आपने लिखा....
    हमने पढ़ा....
    और लोग भी पढ़ें;
    इसलिए बुधवार 08/05/2013 को http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    पर लिंक की जाएगी.
    आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    लिंक में आपका स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  2. Manoj Goyal
    kya baat hai aap to bahut khub likhte ho

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  3. vibha rani Shrivastava
    मैं सच में काँटा हूँ
    काँटा ही बने रह कर
    कभी खुद को भी चुभ कर
    खुद को ही खटकता हूँ मैं।
    !!
    God Bless U

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  4. Maheshwari Kaneri
    bahut sundar rachana..

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  5. Anita Nihalani
    कांटा जब जान जाता है कि वह कांटा है फूल बनने की यात्रा शुरू हो जातीहै..

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  6. Digamber Naswa
    बहुत खूब ... कांटे के दर्द हर कोई नहीं समझ पाता ...
    बहुत उम्दा लिखा है ...

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  7. Rewa tibrewal
    wah ! yashwant bhai....kanto par is say sundar likha kabhi padha nahi

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  8. Ramakant Singh
    मैं सच में काँटा हूँ
    काँटा ही बने रह कर
    कभी खुद को भी चुभ कर
    खुद को ही खटकता हूँ मैं।

    अद्भुत आत्म चिंतन और आत्म अवलोकन

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  9. RAJESH KUMARI
    आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगल वार ७/५ १३ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका वहां स्वागत है ।

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  10. कालीपद प्रसाद
    मैं सच में काँटा हूँ
    काँटा ही बने रह कर
    कभी खुद को भी चुभ कर
    खुद को ही खटकता हूँ मैं।- good itrospection
    डैश बोर्ड पर पाता हूँ आपकी रचना, अनुशरण कर ब्लॉग को
    अनुशरण कर मेरे ब्लॉग को अनुभव करे मेरी अनुभूति को
    latest post'वनफूल'

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  11. बहुत उम्दा लिखा है

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  12. दर्द को महसूस करने के लिए कांटे भी जरुरी हैं.

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