ऊपर वाले की नेमत से मिली हैं दो आँखें
चार दीवारी की बंधी पट्टी के उस पार
देख नहीं सकता।
मैं महफूज हूँ अपनी ही चादर में सिमट कर
बाहर निकल कर खुले जिस्मों को
देख नहीं सकता।
नीरो की तरह बांसुरी बजा कर अपनी मस्ती में
मुर्दानि में झूमता हूँ किसी को रोता
देख नहीं सकता।
ऊपर वाले की नेमत से मिली हैं दो आँखें
इंसान के लबादे में इंसा को
देख नहीं सकता।
~यशवन्त माथुर©
प्रतिलिप्याधिकार/सर्वाधिकार सुरक्षित ©
इस ब्लॉग पर प्रकाशित अभिव्यक्ति (संदर्भित-संकलित गीत /चित्र /आलेख अथवा निबंध को छोड़ कर) पूर्णत: मौलिक एवं सर्वाधिकार सुरक्षित है।
यदि कहीं प्रकाशित करना चाहें तो yashwant009@gmail.com द्वारा पूर्वानुमति/सहमति अवश्य प्राप्त कर लें।
28 June 2013
देख नहीं सकता
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
24 June 2013
जाने क्यों इतना बहता है पानी
जाने क्यों इतना बहता है पानी
अपनी कल-कल में आज रचता
मन में कोई कहानी
ताल तलैया,नदियां सागर
कल्पना के सीप समा कर
कुछ छोड़ किनारे पर करता
रह रह कर अपनी मनमानी
भावना की नौका चलती
सैर कराकर हर कोने की
जब आ किनारे पर लगती
तब भी थमता नहीं पानी
जाने क्यों इतना बहता है पानी
अपनी कल-कल में आज रचता
मन में कोई कहानी
~यशवन्त माथुर©
[एक खास दोस्त की फेसबुक फोटो को देख कर
मेरे मन में आए विचार जिसे उनके कमेन्ट बॉक्स से यहाँ कॉपी-पेस्ट किया है। ]
अपनी कल-कल में आज रचता
मन में कोई कहानी
ताल तलैया,नदियां सागर
कल्पना के सीप समा कर
कुछ छोड़ किनारे पर करता
रह रह कर अपनी मनमानी
भावना की नौका चलती
सैर कराकर हर कोने की
जब आ किनारे पर लगती
तब भी थमता नहीं पानी
जाने क्यों इतना बहता है पानी
अपनी कल-कल में आज रचता
मन में कोई कहानी
~यशवन्त माथुर©
[एक खास दोस्त की फेसबुक फोटो को देख कर
मेरे मन में आए विचार जिसे उनके कमेन्ट बॉक्स से यहाँ कॉपी-पेस्ट किया है। ]
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
21 June 2013
खंडित उत्तर हैं, प्रश्न गायब हैं यहाँ......
सांसें चलती हैं, यूं तो जीवन के लिये।
सांसें थमती हैं,यूं तो जीवन के लिये॥
पहाड़ टूटते हैं, सबक सिखाने के लिये ।
कुछ लोग बचते हैं, मंज़र बताने के लिये॥
लाशें बिछी पड़ी हैं, मंदिर के द्वार पर।
जो खड़े हैं गिर रहे हैं, जीवन से हार कर॥
मौत भी चल रही है, बेईमान बनने के लिये।
इंसान की संगत का, असल असर दिखाने के लिये॥
समझ आया न अब तक, क्या हो रहा है यहाँ ।
खंडित उत्तर हैं, प्रश्न गायब हैं यहाँ॥
सांसें चलती हैं, यूं तो जीवन के लिये।
सांसें थमती हैं,यूं तो जीवन के लिये॥
बारिश थम चुकी है, ज़मींदोज़ अरमानों के लिये।
सन्नाटों में कुछ भी नहीं, सपने सजाने के लिये॥
~यशवन्त माथुर©
सांसें थमती हैं,यूं तो जीवन के लिये॥
पहाड़ टूटते हैं, सबक सिखाने के लिये ।
कुछ लोग बचते हैं, मंज़र बताने के लिये॥
लाशें बिछी पड़ी हैं, मंदिर के द्वार पर।
जो खड़े हैं गिर रहे हैं, जीवन से हार कर॥
मौत भी चल रही है, बेईमान बनने के लिये।
इंसान की संगत का, असल असर दिखाने के लिये॥
समझ आया न अब तक, क्या हो रहा है यहाँ ।
खंडित उत्तर हैं, प्रश्न गायब हैं यहाँ॥
सांसें चलती हैं, यूं तो जीवन के लिये।
सांसें थमती हैं,यूं तो जीवन के लिये॥
बारिश थम चुकी है, ज़मींदोज़ अरमानों के लिये।
सन्नाटों में कुछ भी नहीं, सपने सजाने के लिये॥
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
18 June 2013
मौसम बड़ा भ्रष्ट है
इसी बात का कष्ट है
यहाँ सब कुछ स्पष्ट है
एक कोने मे सूखा-गर्मी
दूसरी जगह सब त्रस्त है
मौसम बड़ा भ्रष्ट है।
कहीं बाढ़ की रार मची है
कहीं रिमझिम की तान छिड़ी है
कोई भीगता भीगता हँसता
कोई भागता भागता रोता
दिन रात के सुकून को खोता।
उस समय को क्यों नहीं सोचा
जब हरियाली को है नोंचा
जैसा किया अब भोगो वैसा
नियम प्रकृति का स्पष्ट है
वो तो अपने ही में मस्त है।
रिश्वत संकल्प की चाहता मौसम
नंगे पहाड़ों का पेड़ ही वस्त्र हैं
मत उजाड़ो सुंदर धरती
झरने नदियां हम से त्रस्त हैं
मौसम नहीं हम ही भ्रष्ट हैं ।
~यशवन्त माथुर©
यहाँ सब कुछ स्पष्ट है
एक कोने मे सूखा-गर्मी
दूसरी जगह सब त्रस्त है
मौसम बड़ा भ्रष्ट है।
कहीं बाढ़ की रार मची है
कहीं रिमझिम की तान छिड़ी है
कोई भीगता भीगता हँसता
कोई भागता भागता रोता
दिन रात के सुकून को खोता।
उस समय को क्यों नहीं सोचा
जब हरियाली को है नोंचा
जैसा किया अब भोगो वैसा
नियम प्रकृति का स्पष्ट है
वो तो अपने ही में मस्त है।
रिश्वत संकल्प की चाहता मौसम
नंगे पहाड़ों का पेड़ ही वस्त्र हैं
मत उजाड़ो सुंदर धरती
झरने नदियां हम से त्रस्त हैं
मौसम नहीं हम ही भ्रष्ट हैं ।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
17 June 2013
कल रात आसमान में चाँद नहीं दिखा।
कल रात
आसमान में चाँद नहीं दिखा
मानसूनी बादलों को ओढ़े
जाने कहाँ छिपा रहा
मैं ताकता रहा राह
कि अगर दिख जाय तो
तारों की थाली में
परोस दूंगा कुछ बातें
न आया वो
न हो पायी मुलाक़ात
कड़कती रही बिजली
होती रही बरसात
वो किसी गम में है
या किसी और से मिलता रहा
कल रात आसमान में
चाँद नहीं दिखा।
~यशवन्त माथुर©
आसमान में चाँद नहीं दिखा
मानसूनी बादलों को ओढ़े
जाने कहाँ छिपा रहा
मैं ताकता रहा राह
कि अगर दिख जाय तो
तारों की थाली में
परोस दूंगा कुछ बातें
न आया वो
न हो पायी मुलाक़ात
कड़कती रही बिजली
होती रही बरसात
वो किसी गम में है
या किसी और से मिलता रहा
कल रात आसमान में
चाँद नहीं दिखा।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
16 June 2013
मैं चुप नहीं रह सकता ...
न जाने कैसे
कुछ लोग
ओढ़े रहते हैं
मौन का आवरण
कोलाहल में भी
बने रहते हैं शांत
रुके हुए पानी की तरह
मैंने कोशिश की कई बार
उन जैसा बनने की
शांति और सन्नाटों को
महसूस करने की
पर अफसोस!
मैं पानी की बहती धार हूँ
जो बक बक करती जाती है
अपनी कल कल में
अपनी धुन में
इस बात से बे परवाह
कि कोई सुन रहा है
या नहीं
मैं ऐसा ही हूँ
मौन और मेरा
छत्तीस का रिश्ता है
मौन आकर्षित कर सकता है
मगर मैं
निर्जीव दीवारों से भी
कह सकता हूँ
अपने मन की हर बात
क्योंकि
मैं चुप नहीं रह सकता।
~यशवन्त माथुर©
कुछ लोग
ओढ़े रहते हैं
मौन का आवरण
कोलाहल में भी
बने रहते हैं शांत
रुके हुए पानी की तरह
मैंने कोशिश की कई बार
उन जैसा बनने की
शांति और सन्नाटों को
महसूस करने की
पर अफसोस!
मैं पानी की बहती धार हूँ
जो बक बक करती जाती है
अपनी कल कल में
अपनी धुन में
इस बात से बे परवाह
कि कोई सुन रहा है
या नहीं
मैं ऐसा ही हूँ
मौन और मेरा
छत्तीस का रिश्ता है
मौन आकर्षित कर सकता है
मगर मैं
निर्जीव दीवारों से भी
कह सकता हूँ
अपने मन की हर बात
क्योंकि
मैं चुप नहीं रह सकता।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
14 June 2013
मुझे याद है ....
मुझे याद हैं
सन्न कर देने वाले
वह पल
जब सुनते ही
'तार' का नाम
छा जाती थी
अजब सी खामोशी
छलक पड़ती थीं आँखें
कभी खुशी में
कभी गम में ।
मुझे याद हैं
त्योहारों पर
भेजे जाने वाले
एक लाइना संदेश ...
लैटर हेड्स पर लिखा
'तार' का पता।
मुझे याद है
वह पल
जब पहली बार सुना था
'तार' का नाम
बचपन में
और चौंक कर देखा था
धातु के एक तार को
बाल सुलभ
उत्सुकता से ।
वह 'तार'....
बेतार का 'तार'
अब हो जाएगा विदा
हमेशा के लिये
बना कर
साक्षी मुझ को
एक युग के
दूसरे युग मे
संक्रमण का।
सोच रहा हूँ
'यश' का अंत
इसी तरह होता है
समय यूं ही
चलता है
अपनी तेज़ चाल......।
~यशवन्त माथुर©
सन्न कर देने वाले
वह पल
जब सुनते ही
'तार' का नाम
छा जाती थी
अजब सी खामोशी
छलक पड़ती थीं आँखें
कभी खुशी में
कभी गम में ।
मुझे याद हैं
त्योहारों पर
भेजे जाने वाले
एक लाइना संदेश ...
लैटर हेड्स पर लिखा
'तार' का पता।
मुझे याद है
वह पल
जब पहली बार सुना था
'तार' का नाम
बचपन में
और चौंक कर देखा था
धातु के एक तार को
बाल सुलभ
उत्सुकता से ।
वह 'तार'....
बेतार का 'तार'
अब हो जाएगा विदा
हमेशा के लिये
बना कर
साक्षी मुझ को
एक युग के
दूसरे युग मे
संक्रमण का।
सोच रहा हूँ
'यश' का अंत
इसी तरह होता है
समय यूं ही
चलता है
अपनी तेज़ चाल......।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
बातें......
रिश्ते कैद हो रहे हैं
मशीनों के भीतर
मुट्ठी में दुनिया है
और ठोकर पर बातें
कहकहे गुम हो रहे हैं
खामोशियों के भीतर
मीलों आगे है दुनिया
और सदियों पीछे हैं यादें
अब कोई मोल नहीं
कसमों का न वादों का
ये दौर है पल में बनती
पल मे बिगड़ती बातों का
गाँव सिमट रहे हैं
बढ़ते शहरों के भीतर
कंक्रीट हो रही है दुनिया
और जम रही हैं बातें।
~यशवन्त माथुर© (आदरणीया शालिनी सक्सेना जी की
फेसबुक पोस्ट पर की गयी टिप्पणी का विस्तारित रूप)
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
13 June 2013
रेत जैसी उम्मीद
(1)
उम्मीद
सिर्फ रेत जैसी होती है
जो बिखरी रहती है
किनारों पर
जिसे
कोई कलाकार
ढाल देता है भले ही
कभी महलों के रूप में
कभी किलों
या किसी मूरत के रूप में
पर
वास्तविकता
और सच्चाई की हवा का
एक हल्का सा झोंका
ढहा देता है
रूपवती कल्पना को
हो जाती है
पहले जैसी ही
मिल जाती है
खुद के ही आधार में
उम्मीद की रेत।
(2)
उम्मीद की रेत
जिस की नींव पर
टिकी है दुनिया
कभी बिखरती है
कभी उठती है
कभी कामयाब होती है
कभी निराश होती है
फिर भी घूमती रहती है गोल
मीलों दूर
टिमटिमाते सूरज के
लगाती रहती है चक्कर
उसे पाने की
असफल चाहत लिये
लेकिन उसकी तपिश को
खुद में महसूस करती
यह दुनिया ........
उम्मीद की रेत पर टिकी
यह दुनिया ...
क्या यूं ही
डगमगाती रहेगी ?
आखिर कब तक ?
~यशवन्त माथुर©
उम्मीद
सिर्फ रेत जैसी होती है
जो बिखरी रहती है
किनारों पर
जिसे
कोई कलाकार
ढाल देता है भले ही
कभी महलों के रूप में
कभी किलों
या किसी मूरत के रूप में
पर
वास्तविकता
और सच्चाई की हवा का
एक हल्का सा झोंका
ढहा देता है
रूपवती कल्पना को
हो जाती है
पहले जैसी ही
मिल जाती है
खुद के ही आधार में
उम्मीद की रेत।
(2)
उम्मीद की रेत
जिस की नींव पर
टिकी है दुनिया
कभी बिखरती है
कभी उठती है
कभी कामयाब होती है
कभी निराश होती है
फिर भी घूमती रहती है गोल
मीलों दूर
टिमटिमाते सूरज के
लगाती रहती है चक्कर
उसे पाने की
असफल चाहत लिये
लेकिन उसकी तपिश को
खुद में महसूस करती
यह दुनिया ........
उम्मीद की रेत पर टिकी
यह दुनिया ...
क्या यूं ही
डगमगाती रहेगी ?
आखिर कब तक ?
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
12 June 2013
उत्पाती बंदर
डाल डाल पर कूदता बंदर
हँसाता कभी डराता बंदर
सबको करता घर के अंदर
जब तक बाहर रहता बंदर
नोंच नोंच कर पेड़ों से
कच्चे पके फल खाता बंदर
या घास के हरे लॉन को
बेदर्दी से उजाड़ता बंदर
अरे बाप रे कैसा मंज़र
हाथ से छीन कर खाता बंदर
डंडे गुलेल की फटकारों से
बड़ी मुश्किल से भागता बंदर
मैं भी था ऐसा ही बंदर
बचपन में उत्पाती था
मम्मी आती लेकर डंडा
ऊंचाई पर चड़ जाता था
अब तो शायद ही दिखता बंदर
जाने कहाँ पे छुप गया बंदर
मेरा भी बचपन बीत गया
शरारतें गयीं अब खोल के अंदर :)
~यशवन्त माथुर©
हँसाता कभी डराता बंदर
सबको करता घर के अंदर
जब तक बाहर रहता बंदर
नोंच नोंच कर पेड़ों से
कच्चे पके फल खाता बंदर
या घास के हरे लॉन को
बेदर्दी से उजाड़ता बंदर
अरे बाप रे कैसा मंज़र
हाथ से छीन कर खाता बंदर
डंडे गुलेल की फटकारों से
बड़ी मुश्किल से भागता बंदर
मैं भी था ऐसा ही बंदर
बचपन में उत्पाती था
मम्मी आती लेकर डंडा
ऊंचाई पर चड़ जाता था
अब तो शायद ही दिखता बंदर
जाने कहाँ पे छुप गया बंदर
मेरा भी बचपन बीत गया
शरारतें गयीं अब खोल के अंदर :)
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
09 June 2013
काश! दुनिया गोल न होती
सबने बना रखी है
अपनी अपनी एक दुनिया
जिसके भीतर
सिमटे रहते हैं लोग
कृत्रिम हंसी का
मुखौटा लगाए
न बाहर जा पाते हैं
अपनी धुरी से
न आने देते हैं भीतर
बंद दरवाजों को साथ लिये
अपने परिपथ पर
गोल गोल घूमती
सबकी अपनी अपनी दुनिया
अनजान है
आस-पास के
बदलावों से
कोई मीलों आगे है
कोई मीलों पीछे
कोई अभी सपना है
कोई हकीकत
काश!
दुनिया गोल न होती
टेढ़ी मेढ़ी होती
रंग बदलती
इंसानी सोच की तरह
तो कर सकती अतिक्रमण
और जान सकती
अपने दायरे के
बाहर का हाल ।
~यशवन्त माथुर©
अपनी अपनी एक दुनिया
जिसके भीतर
सिमटे रहते हैं लोग
कृत्रिम हंसी का
मुखौटा लगाए
न बाहर जा पाते हैं
अपनी धुरी से
न आने देते हैं भीतर
बंद दरवाजों को साथ लिये
अपने परिपथ पर
गोल गोल घूमती
सबकी अपनी अपनी दुनिया
अनजान है
आस-पास के
बदलावों से
कोई मीलों आगे है
कोई मीलों पीछे
कोई अभी सपना है
कोई हकीकत
काश!
दुनिया गोल न होती
टेढ़ी मेढ़ी होती
रंग बदलती
इंसानी सोच की तरह
तो कर सकती अतिक्रमण
और जान सकती
अपने दायरे के
बाहर का हाल ।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
06 June 2013
फर्क नहीं पड़ता
यूं तो दीवारों पर लटकी हुई हैं तस्वीरें
गर्द जम भी जाए तो फर्क नहीं पड़ता
चेहरा तो वही भले ही धूल के मुखौटे में
राज़ छुप भी जाए तो फर्क नहीं पड़ता
वक़्त की दीमक खोखला कर दे भले ही भीतर से
असली सूरत हो वही तो फर्क नहीं पड़ता
फर्क नहीं पड़ता बस कहने भर की बातों से
एक बूंद कम होने से समुंदर कम नहीं पड़ता
यूं तो दीवारों पर लटकी हुई हैं तस्वीरें
कोई डाले न इक नज़र तो फर्क नहीं पड़ता।
~यशवन्त माथुर©
गर्द जम भी जाए तो फर्क नहीं पड़ता
चेहरा तो वही भले ही धूल के मुखौटे में
राज़ छुप भी जाए तो फर्क नहीं पड़ता
वक़्त की दीमक खोखला कर दे भले ही भीतर से
असली सूरत हो वही तो फर्क नहीं पड़ता
फर्क नहीं पड़ता बस कहने भर की बातों से
एक बूंद कम होने से समुंदर कम नहीं पड़ता
यूं तो दीवारों पर लटकी हुई हैं तस्वीरें
कोई डाले न इक नज़र तो फर्क नहीं पड़ता।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
05 June 2013
तो अच्छा होगा.......(पर्यावरण दिवस पर)
कंक्रीट की बस्ती में
गर्मी से झुलसता इंसान
बरसात में भीगता इंसान
ठंड में ठिठुरता इंसान
विलासिता में डूबा इंसान
हवा में उड़ता इंसान
कृत्रिम हवा में जीता इंसान
खुद के कर्मों से हार कर
खो रहा है
हरियाली
ऊंची शाखों
और पत्तों की घनी छत
पहाड़ और नदियां
इससे पहले की प्रकृति
रूठ कर
मांगने लगे
हर साँस का हिसाब
हम चेत जाएँ
तो अच्छा होगा।
~यशवन्त माथुर©
गर्मी से झुलसता इंसान
बरसात में भीगता इंसान
ठंड में ठिठुरता इंसान
विलासिता में डूबा इंसान
हवा में उड़ता इंसान
कृत्रिम हवा में जीता इंसान
खुद के कर्मों से हार कर
खो रहा है
हरियाली
ऊंची शाखों
और पत्तों की घनी छत
पहाड़ और नदियां
इससे पहले की प्रकृति
रूठ कर
मांगने लगे
हर साँस का हिसाब
हम चेत जाएँ
तो अच्छा होगा।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
03 June 2013
नारी ने कहना छोड़ दिया ......श्रीमती संतोष सिंह
आज प्रस्तुत है आदरणीया संतोष आंटी जी की कविता जो नारी को कुछ अलग तरह से वर्णित करती है।
संतोष आंटी को लिखने का शौक काफी समय से है और वर्ष 1968 से वह लगातार अपनी डायरी में लिखती आ रही हैं। समय समय पर आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र से इनकी कविताएं प्रसारित हो चुकी है।
_______________________________________________________
नारी ने कहना छोड़ दिया
नारी ने सहना छोड़ दिया
अपने इन सक्षम हाथों से
भार उठाना सीख लिया।
वो रचती नित आकाश नये
निर्मित करती विन्यास नये
घर के आँगन से दफ्तर तक
गलियों से ले कर पत्थर तक
भू के अंदर भू के ऊपर
अब अंतरिक्ष को भी छू कर
नारी ने परिचय दिया आज
अबला का दामन छोड़ दिया।
नारी.........
सर पर बारिश और धूप लिये
संयम साहस प्रति रूप लिये
हर जगह शक्ति का रूप लिये
अपने अंदर एक हूक लिये
हर कदम वो बढ़ती जाती है
हर जगह वो मंज़िल पाती है।
रुख मोड़ नदी का देती है
रुख देख के बहना छोडना दिया।
नारी........
वो जग पालक वो संहारक
वो जन्म दायिनी और तारक
उसकी सृष्टि है दिग दिगंत
उसकी शक्ति का नहीं अंत
पूजित है सबसे उसका रूप
उसको इस जगत चराचर ने
माया गहनों से जोड़ दिया ।
नारी.......
वो इन्दिरा बनी तो राज़ किया
जब वक़्त पड़ा गोली खाई
वो कल्पना चावला बनी यहाँ
चंदा को छू कर ही आई
ऐसी कुर्वानी दी उसने
इतिहास में पन्ना जोड़ दिया
नारी ने.......
~श्रीमती संतोष सिंह ©
संतोष आंटी को लिखने का शौक काफी समय से है और वर्ष 1968 से वह लगातार अपनी डायरी में लिखती आ रही हैं। समय समय पर आकाशवाणी के लखनऊ केंद्र से इनकी कविताएं प्रसारित हो चुकी है।
_______________________________________________________
संतोष सिंह जी |
नारी ने सहना छोड़ दिया
अपने इन सक्षम हाथों से
भार उठाना सीख लिया।
वो रचती नित आकाश नये
निर्मित करती विन्यास नये
घर के आँगन से दफ्तर तक
गलियों से ले कर पत्थर तक
भू के अंदर भू के ऊपर
अब अंतरिक्ष को भी छू कर
नारी ने परिचय दिया आज
अबला का दामन छोड़ दिया।
नारी.........
सर पर बारिश और धूप लिये
संयम साहस प्रति रूप लिये
हर जगह शक्ति का रूप लिये
अपने अंदर एक हूक लिये
हर कदम वो बढ़ती जाती है
हर जगह वो मंज़िल पाती है।
रुख मोड़ नदी का देती है
रुख देख के बहना छोडना दिया।
नारी........
वो जग पालक वो संहारक
वो जन्म दायिनी और तारक
उसकी सृष्टि है दिग दिगंत
उसकी शक्ति का नहीं अंत
पूजित है सबसे उसका रूप
उसको इस जगत चराचर ने
माया गहनों से जोड़ दिया ।
नारी.......
वो इन्दिरा बनी तो राज़ किया
जब वक़्त पड़ा गोली खाई
वो कल्पना चावला बनी यहाँ
चंदा को छू कर ही आई
ऐसी कुर्वानी दी उसने
इतिहास में पन्ना जोड़ दिया
नारी ने.......
~श्रीमती संतोष सिंह ©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
02 June 2013
खुद ही के लिये ......(चौथे वर्ष की पहली पोस्ट)
भविष्य के पन्नों पर वर्तमान की कलम से
लिख रहा हूँ कुछ शब्द खुद ही के लिये
कोई समझे न समझे इन इबारतों की तासीर
जो मेरा मन कहे बस मेरे ही लिये
खारे पानी में,चाश्नी में डुबकी लगता हूँ रोज़ ही
सफ़ेद ही सब कुछ नहीं,बचा है कुछ स्याह के लिये
यह स्याही बदलती है हर पल रंग अपना
अपना यह इन्द्र धनुष बस अपनों ही के लिये
भविष्य के पन्नों पर वर्तमान की कलम से
खींच रहा हूँ लकीरें नयी तसवीरों के लिये।
--------------------------
यूं तो हर पल खास होता है मगर बीता 1 साल काफी कुछ सिखाने वाला रहा है। ब्लोगिंग के प्रचलित तरीकों के अतिरिक्त ब्लॉग के माध्यम से शेल्फ साहित्य (या सेल्फ साहित्य) के गोरख धंधे,टांग खिंचाई,उल्टा चोर कोतवाल को डांटे जैसे मुहावरों को व्यावहारिक रूप मे समझने का मौका भी मिला। तीसरे साल के अंतिम दिनों में यह भी पता चला कि कुछ लोग इस ब्लॉग और 'हलचल' को लेकर भी अपने मन में कुंठा पाले हुए हैं। जो कहीं न कहीं बाहर निकल रही है।
खैर मैं इन सब बातों से परेशान और निराश होने वाला नहीं हूँ। बचपन से अब तक जो भी लिखता आ रहा हूँ उस सबके पीछे मेरे पिता जी का प्रोत्साहन है और किसी चीज़ की कोई ज़रूरत नहीं है।
ब्लॉग जगत में कुछ लोगों के चाहे-अनचाहे आज मेरे 3 साल पूरे हो ही गये। देखना यह है चौथे साल में और क्या क्या नया सीखने को मिलता है।
आप सभी के द्वारा अब तक प्राप्त स्नेह के लिये तहे दिल से शुक्रिया।
~यशवन्त माथुर©
लिख रहा हूँ कुछ शब्द खुद ही के लिये
कोई समझे न समझे इन इबारतों की तासीर
जो मेरा मन कहे बस मेरे ही लिये
खारे पानी में,चाश्नी में डुबकी लगता हूँ रोज़ ही
सफ़ेद ही सब कुछ नहीं,बचा है कुछ स्याह के लिये
यह स्याही बदलती है हर पल रंग अपना
अपना यह इन्द्र धनुष बस अपनों ही के लिये
भविष्य के पन्नों पर वर्तमान की कलम से
खींच रहा हूँ लकीरें नयी तसवीरों के लिये।
--------------------------
यूं तो हर पल खास होता है मगर बीता 1 साल काफी कुछ सिखाने वाला रहा है। ब्लोगिंग के प्रचलित तरीकों के अतिरिक्त ब्लॉग के माध्यम से शेल्फ साहित्य (या सेल्फ साहित्य) के गोरख धंधे,टांग खिंचाई,उल्टा चोर कोतवाल को डांटे जैसे मुहावरों को व्यावहारिक रूप मे समझने का मौका भी मिला। तीसरे साल के अंतिम दिनों में यह भी पता चला कि कुछ लोग इस ब्लॉग और 'हलचल' को लेकर भी अपने मन में कुंठा पाले हुए हैं। जो कहीं न कहीं बाहर निकल रही है।
खैर मैं इन सब बातों से परेशान और निराश होने वाला नहीं हूँ। बचपन से अब तक जो भी लिखता आ रहा हूँ उस सबके पीछे मेरे पिता जी का प्रोत्साहन है और किसी चीज़ की कोई ज़रूरत नहीं है।
ब्लॉग जगत में कुछ लोगों के चाहे-अनचाहे आज मेरे 3 साल पूरे हो ही गये। देखना यह है चौथे साल में और क्या क्या नया सीखने को मिलता है।
आप सभी के द्वारा अब तक प्राप्त स्नेह के लिये तहे दिल से शुक्रिया।
~यशवन्त माथुर©
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
Subscribe to:
Posts (Atom)