(1)
उम्मीद
सिर्फ रेत जैसी होती है
जो बिखरी रहती है
किनारों पर
जिसे
कोई कलाकार
ढाल देता है भले ही
कभी महलों के रूप में
कभी किलों
या किसी मूरत के रूप में
पर
वास्तविकता
और सच्चाई की हवा का
एक हल्का सा झोंका
ढहा देता है
रूपवती कल्पना को
हो जाती है
पहले जैसी ही
मिल जाती है
खुद के ही आधार में
उम्मीद की रेत।
(2)
उम्मीद की रेत
जिस की नींव पर
टिकी है दुनिया
कभी बिखरती है
कभी उठती है
कभी कामयाब होती है
कभी निराश होती है
फिर भी घूमती रहती है गोल
मीलों दूर
टिमटिमाते सूरज के
लगाती रहती है चक्कर
उसे पाने की
असफल चाहत लिये
लेकिन उसकी तपिश को
खुद में महसूस करती
यह दुनिया ........
उम्मीद की रेत पर टिकी
यह दुनिया ...
क्या यूं ही
डगमगाती रहेगी ?
आखिर कब तक ?
~यशवन्त माथुर©
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कहने में असमर्थ लिखूँ क्या ....
ReplyDeleteअपनी बेबसी ....
वाह क्या बात है बहुत सुन्दर यशवन्त
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टी की चर्चा शनिवार(15-6-2013) के चर्चा मंच पर भी है ।
ReplyDeleteसूचनार्थ!
बहुत सुन्दर और प्रभावी प्रस्तुति...
ReplyDeleteवाह क्या बात है ...!!!
ReplyDeleteक्या बात है..बहुत सुंदर लिखा है रेत पर
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