सांसें चलती हैं, यूं तो जीवन के लिये।
सांसें थमती हैं,यूं तो जीवन के लिये॥
पहाड़ टूटते हैं, सबक सिखाने के लिये ।
कुछ लोग बचते हैं, मंज़र बताने के लिये॥
लाशें बिछी पड़ी हैं, मंदिर के द्वार पर।
जो खड़े हैं गिर रहे हैं, जीवन से हार कर॥
मौत भी चल रही है, बेईमान बनने के लिये।
इंसान की संगत का, असल असर दिखाने के लिये॥
समझ आया न अब तक, क्या हो रहा है यहाँ ।
खंडित उत्तर हैं, प्रश्न गायब हैं यहाँ॥
सांसें चलती हैं, यूं तो जीवन के लिये।
सांसें थमती हैं,यूं तो जीवन के लिये॥
बारिश थम चुकी है, ज़मींदोज़ अरमानों के लिये।
सन्नाटों में कुछ भी नहीं, सपने सजाने के लिये॥
~यशवन्त माथुर©
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21 June 2013
खंडित उत्तर हैं, प्रश्न गायब हैं यहाँ......
बहुत ही साधारण लिखने वाला एक बहुत ही साधारण इंसान जिसने 7 वर्ष की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। वाणिज्य में स्नातक। अच्छा संगीत सुनने का शौकीन। ब्लॉगिंग में वर्ष 2010 से सक्रिय। एक अग्रणी शैक्षिक प्रकाशन में बतौर हिन्दी प्रूफ रीडर 3 वर्ष का कार्य अनुभव।
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क्या कहूँ .......
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुतिकरण,आभार।
ReplyDeleteसटीक प्रस्तुति
ReplyDeleteदिल को चाक चाक करती गहरे अल्फाज़ लिए वाह
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत रचना अभिवयक्ति.........
ReplyDeleteयशवंत माथुर भाई जी आपकी अंतिम लाइन ने मेरे पिताजी की मृत्यु के क्षणों को याद दिला गया
ReplyDeleteसच! सन्नाटों में कुछ भी नहीं .. सपने दफन से हैं ..
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