इसी बात का कष्ट है
यहाँ सब कुछ स्पष्ट है
एक कोने मे सूखा-गर्मी
दूसरी जगह सब त्रस्त है
मौसम बड़ा भ्रष्ट है।
कहीं बाढ़ की रार मची है
कहीं रिमझिम की तान छिड़ी है
कोई भीगता भीगता हँसता
कोई भागता भागता रोता
दिन रात के सुकून को खोता।
उस समय को क्यों नहीं सोचा
जब हरियाली को है नोंचा
जैसा किया अब भोगो वैसा
नियम प्रकृति का स्पष्ट है
वो तो अपने ही में मस्त है।
रिश्वत संकल्प की चाहता मौसम
नंगे पहाड़ों का पेड़ ही वस्त्र हैं
मत उजाड़ो सुंदर धरती
झरने नदियां हम से त्रस्त हैं
मौसम नहीं हम ही भ्रष्ट हैं ।
~यशवन्त माथुर©
भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी हैं ;)
ReplyDeleteउम्दा प्रस्तुति आभार . बघंबर पहनकर आये ,असल में ये हैं सौदागर .
ReplyDeleteआप भी जानें संपत्ति का अधिकार -४.नारी ब्लोगर्स के लिए एक नयी शुरुआत आप भी जुड़ें WOMAN ABOUT MAN "झुका दूं शीश अपना"
बहुत खूब
ReplyDeleteसामयिक सार्थक अभिव्यक्ति
हार्दिक शुभकामनायें
sacchi bat kah di kavita ke bahane ....
ReplyDeleteबहुत दिनों के बाद ब्लॉग पर आने के लिए क्षमा मांगता हूँ .लाजवाब रचना, आपने बहुत सच्ची बात की है---बधाई ।
ReplyDeleteमत उजाड़ो सुंदर धरती
ReplyDeleteझरने नदियां हम से त्रस्त हैं
मौसम नहीं हम ही भ्रष्ट हैं ।
...सच कहा है...बहुत सार्थक अभिव्यक्ति....
वाक़ई कष्
ReplyDeleteट ही कष्ट है
मौसम बड़ा भ्रष्ट है।
ReplyDeleteज़बरदस्त कटाक्ष ...
बहुत गहरी हैं ये जड़ें ...
ReplyDeleteप्रभावी रचना है ...