रोज़ बनाता हूँ
बातों की रेत के टीले
रोज़ रंगता हूँ
मन की
काली दीवारों को
सफेदी से ...
रोज़ लगाता हूँ
चेहरे पर
शराफत के मुखौटे
जिनकी लकीरों को
बदलता हूँ
कपड़ों की तरह
मैं निश्चिंत हूँ
टीलों की
मजबूती को ले कर
मैं निश्चिंत हूँ
कोई भी खरोच
मिटा नहीं सकेगी
सफेदी
मैं निश्चिंत हूँ
मेरे गिरगिटिया मुखौटे
ज़ाहिर नहीं होने देंगे
मेरी सही पहचान
क्योंकि ये जो दुनिया है
उसे आदत है
काँटों पर सोते हुए
फूलों के बिछौने की
आखिर पागल जो है
मेरी तरह।
~यशवन्त माथुर©
कटाक्ष अच्छा है ...पर ज्यादा दिन नहीं चलती यह सफेदी...अपना आप ही जवाब मांगने लगता है..अच्छा हो उतार दें सारे मुखौटे और नवजात शिशु की तरह खाली हो जाएँ..
ReplyDeleteतुम भी पागल...हम भी पागल.....
ReplyDeleteबढ़िया है!!!
अनु
बहुत बढिया..शुभकामनायं..यशवंत
ReplyDeleteआखिर कब तक हम सब पागल रहेंगे कभी न कभी तो निकलना होगा.. नकलीपन से.. अच्छी रचना !!
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर भाव प्रकट हुए हैं . शुभकामनाएँ
ReplyDeleteअच्छा लगा।..बहुत बधाई।
ReplyDeleteअंतिम पंक्तियों खासकर 'पागल' पर विचार करें। यह दुनियाँ 'पागल' नहीं 'झूठी' लगती है मुझे... मेरी तरह। :)
waah yashwant ..bahut badhiya ..
ReplyDeleteमैं निश्चिंत हूँ
ReplyDeleteटीलों की
मजबूती को ले कर
मैं निश्चिंत हूँ
कोई भी खरोच
मिटा नहीं सकेगी
सफेदी
मैं निश्चिंत हूँ
मेरे गिरगिटिया मुखौटे
ज़ाहिर नहीं होने देंगे
मेरी सही पहचान....... Speechless !!
कभी कभी पागलपन भी जरुरी है कुछ अच्छा कर गुजरने के लिए ....
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
बहुत ही लाजवाब और सशक्त पोस्ट .....
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें
बहुत अच्छी रचना. पर मुखोटों में कबतक कोई जियेगा?इस पागलपन को तो छोड़ना .ही अच्छा होगा
ReplyDeleteबहुत खूब .....है तो दुनिया ऐसी ही
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