14 July 2013

ये दुनिया पागल है

रोज़ बनाता हूँ
बातों की रेत के टीले
रोज़ रंगता हूँ
मन की
काली दीवारों को
सफेदी से ...
रोज़ लगाता हूँ
चेहरे पर
शराफत के मुखौटे
जिनकी लकीरों को
बदलता हूँ
कपड़ों की तरह

मैं निश्चिंत हूँ
टीलों की
मजबूती को ले कर
मैं निश्चिंत हूँ
कोई भी खरोच
मिटा नहीं सकेगी
सफेदी
मैं निश्चिंत हूँ
मेरे गिरगिटिया मुखौटे
ज़ाहिर नहीं होने देंगे
मेरी सही पहचान

क्योंकि ये जो दुनिया है
उसे आदत है
काँटों पर सोते हुए
फूलों के बिछौने की

आखिर पागल जो है
मेरी तरह।  

~यशवन्त माथुर©

12 comments:

  1. कटाक्ष अच्छा है ...पर ज्यादा दिन नहीं चलती यह सफेदी...अपना आप ही जवाब मांगने लगता है..अच्छा हो उतार दें सारे मुखौटे और नवजात शिशु की तरह खाली हो जाएँ..

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  2. तुम भी पागल...हम भी पागल.....

    बढ़िया है!!!

    अनु

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  3. बहुत बढिया..शुभकामनायं..यशवंत

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  4. आखिर कब तक हम सब पागल रहेंगे कभी न कभी तो निकलना होगा.. नकलीपन से.. अच्छी रचना !!

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  5. बहुत ही सुन्दर भाव प्रकट हुए हैं . शुभकामनाएँ

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  6. अच्छा लगा।..बहुत बधाई।

    अंतिम पंक्तियों खासकर 'पागल' पर विचार करें। यह दुनियाँ 'पागल' नहीं 'झूठी' लगती है मुझे... मेरी तरह। :)

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  7. मैं निश्चिंत हूँ
    टीलों की
    मजबूती को ले कर
    मैं निश्चिंत हूँ
    कोई भी खरोच
    मिटा नहीं सकेगी
    सफेदी
    मैं निश्चिंत हूँ
    मेरे गिरगिटिया मुखौटे
    ज़ाहिर नहीं होने देंगे
    मेरी सही पहचान....... Speechless !!

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  8. कभी कभी पागलपन भी जरुरी है कुछ अच्छा कर गुजरने के लिए ....
    बहुत बढ़िया

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  9. बहुत ही लाजवाब और सशक्त पोस्ट .....
    हार्दिक शुभकामनायें

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  10. बहुत अच्छी रचना. पर मुखोटों में कबतक कोई जियेगा?इस पागलपन को तो छोड़ना .ही अच्छा होगा

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  11. बहुत खूब .....है तो दुनिया ऐसी ही

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