पिछली बार
जब गुज़रा था उस रास्ते से
उस से हो कर गुजरती थी
एक लंबी चौड़ी सड़क
जिसके दोनों किनारे
लगे थे
नीम और बरगद
आते जाते
कभी कभी
रुक जाया करता था
पाने को छांव
या कभी
बचने को
बरसात से
आज फिर चाहा
उसी रास्ते से
अपनी मंज़िल को जाना
पर जा नहीं सका
वह रास्ता अब बंद है
और उसकी जगह मौजूद है
बहुमंज़िला इमारत
जिसके भीतर
हर दिन होता है
ईमान का
मोल तोल।
~यशवन्त माथुर©
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteआपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी का लिंक कल रविवार (18-08-2013) को "नाग ने आदमी को डसा" (रविवासरीय चर्चा-अंकः1341) पर भी होगा!
स्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ...!
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुमंजिली इमारतें कहाँ से दे पाएंगी कभी रास्तों एवं छाँव का सुकून!
ReplyDeleteतोल मोल में कुछ बचता कहाँ है!
सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeletebahut khoob likha hai, ek katu satya jeevan ka.
ReplyDeleteshubhkamnayen
बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ लिखी है यशवंत भाई आपने. अंत बहुत अच्छा लगा.
ReplyDeleteसही कहा ..सुन्दर प्रस्तुति..
ReplyDeleteवास्तविकता है ....
ReplyDeleteसुन्दर और बेहतरीन रचना...
:-)
Bohot h kadwa sach h zindgi ka...maaf kijiyega bde din baad yaha aa payi....
ReplyDeleteक्योंकि अब यही चलता है...सटीक बात
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ...वास्तविक ...यशवंत जी
ReplyDelete!!
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें
आजकल ऐसी इमारतें ही रास्ता रोके हैं, बेइमान इमारतें.
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