दिन चढ़ने के साथ ही
दिन ढलने के साथ ही
चारदीवारी के बाहर
कभी चारदीवारी के अंदर
ढूँढता हूँ एक मुकाम
कहाँ जाना है मुझे
ऊंचे पहाड़ों की
मुश्किल चढ़ाइयां चढ़ते हुए
पहुँच कर ऊपर
फिर नीचे उतरते हुए
चार राहें हैं सामने
कहाँ जाना है मुझे
वक़्त यूं तो सगा
किसी का भी नहीं होता
अक्सर उसने दिया है
मुझको ही धोखा
धीमा चलना न
तेज़ भागना है मुझे
कहाँ जाना है मुझे ?
~यशवन्त माथुर©
निर्णायक क्षण हर मोड़ पर खड़े हैं...
ReplyDeleteकहाँ जाना है, ये निश्चय अपने विवेक से हमें ही करना है!
God Bless U
ReplyDeleteitna soch vichar kar aage badhne ka matlab hai ki acchi jagah hi jana hoga ......bagut badhiya abhiwayakti ...
ReplyDeleteजिंदगी में हर क्षण एक फैसले लेने होते हैं.. हर मोड़ पर निर्णायक फैसला अच्छी प्रस्तुति !!
ReplyDeleteवख्त के साथ इसी भाग दौड़ में ही जीवन तमाम हो जाता है .. आपकी इस उत्कृष्ट रचना का प्रसारण कल रविवार, दिनांक 25/08/2013 को ब्लॉग प्रसारण http://blogprasaran.blogspot.in/ पर भी .. कृपया पधारें !
ReplyDeleteवाह जी बढ़िया
ReplyDeleteकहीं नहीं जाना है. जहाँ दिल ठहर जाए (तसल्ली हो जाए) वहीं ठिकाना है.
ReplyDeleteखुबसूरत अभिवयक्ति...... .
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बढिया..शुभकामनाएं..
ReplyDelete