उजली राहों के किनारे पर
अँधेरों की उस बस्ती में
घुटनों चलती है जिंदगी
मुस्कुराते हुए
मैं हर रोज़ गुज़रता हूँ
भलमनसाहत का लबादा ओढ़ कर
डालता हूँ एक नज़र
मुंह छुपाते हुए
कोई देख न ले मुझे
उन कच्चे ढलानों पर
उतर कर जाते हुए
लौट कर आते हुए
उजली राहों के किनारे पर
अँधेरों की उस बस्ती में
प्यास से जूझती है जिंदगी
भूख बिताते हुए।
~यशवन्त माथुर©
bahut gehri va sachchi baat kahi hai, sunder abhivyakti
ReplyDeleteshubhkamnayen
हम सब यही करते हैं.....
ReplyDeleteबहुत सुंदर पोस्ट
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनायें
तो रोज की बातें हैं कह पायें कि न कह पायें किन्तु आपने man ko टटोल दिया
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लिख है आपने, मेरे ब्लॉग पर आकर हौसला बढ़ाने के लिए धन्यवाद !
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर लिख है आपने, मेरे ब्लॉग पर आकर हौसला बढ़ाने के लिए धन्यवाद !
ReplyDeleteउजली राहों का स्याह लिखती संवेदना!
ReplyDeleteJaise Kanch ka saman the or gir gaye hum or khud banane fir gaye hum....
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