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24 September 2013

बातें नहीं करता

नहीं 
मैं अंधेरे में 
काले आसमान से 
बातें नहीं करता  

नहीं 
मैं रोशनी में 
चमकते चाँद तारों से 
बातें नहीं करता 

नहीं 
मैं आस पास बिखरे
रिश्ते नातों से 
बातें नहीं करता 

क्योंकि 
मैं बातें करता हूँ 
भाव शून्य दीवारों से 

क्योंकि 
मैं बातें करता हूँ 
बंद कमरों पर लटके तालों से

मेरी बेमतलब 
बातों को 
हर कोई  
समझ नहीं सकता 

मैं इसीलिए
खुद से भी 
खुद की 
बातें नहीं करता। 

~यशवन्त यश©

22 September 2013

इस गली ने इन्सानों को ही,गधा बना दिया

फेसबुक पर आदरणीया प्रियंका श्रीवास्तव जी द्वारा साझा किये गए इस चित्र को देख कर  जो मन में आया-

सोचा था इंसान बन कर निकलेंगे,गधे इस गली से
इस गली ने इन्सानों को ही,गधा बना दिया ।
यूं तो मालूम न था अब तक,पर जब मालूम चला तो
अच्छा भला देख सकता था,अंधा बना दिया ।
अब कंधों पर बोझ है,जिल्द बंधी चिन्दियों का
भीतर से काला कुर्ता,ऊपर उजला बना दिया ।
माना कि यहाँ दलदल,फिर भी है जाना इसी रस्ते से
इस रस्ते ने हर सस्ते को,महंगा बना दिया।

~यशवन्त यश©

21 September 2013

थकान के बाद .......

दिन भर की थकान के बाद
उस मैदान में
पसरी हुई
हरी घास के
नरम बिस्तर पर
जब वो लेटता है
और देखता है
बंद आँखों के भीतर
चमकती दमकती
दुनिया की रंगीनियाँ
और खुली आँखों से
जब महसूस करता है
ऊंचे पेड़ों से गिरती
सूखी पत्तियों का दर्द
तब अचानक ही
मुस्कुरा देते हैं
उसके मजदूर होंठ
क्योंकि
शून्य के
शिखर पर चढ़ कर
वह
नाप चुका होता है
अनंत की
गहरी खाई को। 
~यशवन्त यश©

19 September 2013

आज भर गयी ख्यालों की गुल्लक तो.....

आज भर गयी ख्यालों की गुल्लक
तो उसे तोड़ कर देखा
भीतर जमा मुड़ी पर्चियों को
खोल कर देखा
किसी में लिखा था संदेश
आसमान के तारे गिनने का
किसी में लिखा था स्वप्न
मावस में चाँद के दिखने का
किसी में बना था महल
गरीब के झोपड़ के भीतर
किसी में अनपढ़ पढ़ा रहा था
जीवन के शब्द और अक्षर
अनगिनत इन पर्चियों पर
कल्पना के हर रूप को देखा
आज भर गयी ख्यालों की गुल्लक
तो उसे तोड़ कर देखा।
~यशवन्त यश©

17 September 2013

कहीं को जाते हुए ......

कहीं को जाते हुए
जब भी गुज़रता हूँ 

रेल लाइन के किनारे की 
उस बस्ती से 
देखता हूँ उसे 
हर बार की तरह 
मुस्कुराते हुए 
चमकती आँखों में
कुछ सपने सजाते हुए । 
वो गाता है 
दो दूनी चार 
वो सुनता है 
ककहरा के पाठ 
फुटपाथ की समतल 
कुर्सी और मेज पर 
नन्ही तर्जनी की पेंसिल से 
वह लिखता है अपना कर्म 
पथरीली मिट्टी की कॉपी पर । 
मैं थोड़ा रुकता हूँ 
आँखों के कैमरे से 
उतार कर
उसकी एक तस्वीर 
सँजोता हूँ 
मन की एल्बम में 
और निकल लेता हूँ 
उसकी उजली राह से 
अपनी अंधेरी 
मंज़िल की ओर। 

~यशवन्त यश©

14 September 2013

फिर वही.....

फिर वही बात
वही संकल्प
वही सप्ताह
वही पखवाड़ा
वही माह
वही मंच
पुरस्कार
और प्रपंच

फिर वही
व्यक्तिवाद
भाषावाद
क्षेत्रवाद
और अपवाद ....?

अपवाद है
तो सिर्फ
अपनी ज़ुबान
जिस पर
रचती बसती है
अपनी
हिन्दी ।

 ~यशवन्त यश©

10 September 2013

बस ऐसे ही 'एक' के अनेक हो जाते हैं

फोटो साभार-Gregg Braden
रंग अलग
रूप अलग
पसंद अलग
नापसंद अलग
हो सकता है
वेश और परिवेश अलग
भाषा और देश अलग
जाति और धर्म अलग 
फिर भी भीतर से
एक ही है
हमारा ढांचा
बिल्कुल
उसी साँचे की तरह
जिसमे रख कर
ढाला गया है
तन की मिट्टी को  
स्त्री और पुरुष बना कर
जाने कितने रंग
और रूप बना कर ।

साँसों की अमानत
साथ में लिये
वक़्त की ज़मीं -
आसमां हाथ में लिये 
जाने क्यूँ चलते चलते
रुक जाते हैं कदम
किस नशे में क्यूँ इतना
बहक जाते हैं हम।

कहीं गिराते हैं बम
कहीं छुरे चाकू चलाते हैं 
बस ऐसे ही 'एक' के
अनेक हो जाते हैं ।

~यशवन्त यश©

08 September 2013

कबाड़ी वाला .....

हर सुबह से शाम
वो रोज़ गुज़रता है
गली गली घूमता है 
हर घर के
सामने से
आवाज़ लगाते हुए
खरीदने को
फालतू रद्दी
लोहा लंगड़
टूटा प्लास्टिक
और
न जाने क्या क्या
सब कुछ
जो उसके
और हमारे
काम का नहीं।

वो
तोल कर 
बटोर कर 
समेट कर
सहेजता है 
अपने ठेले में
और चल देता है
अगली राह
जहां कोई और होगा
जो खरीदेगा
उसका बिकाऊ माल।  

अनेकों पड़ावों
से गुज़र कर
आखिरकार
वह रद्दी
वह कचरा
या तो बदल लेता है
रंग- रूप- आकार
या दफन हो जाता है
कहीं किसी
गुमनाम कब्र मे
हमेशा के लिये ।

पर क्या
कोई ऐसा भी
कबाड़ी वाला है..?
जो खरीदता हो
और
ठिकाने लगा देता हो 
मन के एक कोने मे
न जाने कब से जमा
और दबा
रद्दी का ढेर ...
...वह ढेर
जिससे मुक्त होना
इतना भी आसान नहीं।

~यशवन्त यश©

06 September 2013

जन्नत निकल पड़ी है,गबन दोज़ख का करने

निकल जाए जो साँस, तो मुर्दा बदन देख कर
ज़ख्मी रूह भी आएगी,जनाज़े का मंज़र देखने।
मैं इंतज़ार में हूँ,कफन कोई ला दे मुझको
चल दूंगा फिर खुद ही,खुद को दफन करने।
अब और नहीं चलना,इस राह ए जिंदगी पर
जन्नत निकल पड़ी है,गबन दोज़ख का करने।

  ~यशवन्त यश©

05 September 2013

कोई था जो अब भी है

जब घबरा जाता था
कठिन शब्दों की इमला से
आँखों से बहने लगते थे आँसू
तब कोई था
जो हौसला बढ़ाता था
लिखना सिखाता था

जब लिख कर दिखाता था
किसी पन्ने पर 
कल्पना से बातें करती
कोई कविता
तब कोई था
जो सहेजना सिखाता था

जब पढ़ता था
फर्राटेदार संस्कृत
क्लास रूम रीडिंग के समय
तब कोई था
जो सबसे तालियाँ बजवाता था

जब ज़रूरत थी
कॉमर्स की
महंगी किताबों की
तब कोई था
जो निश्चिंत रहने को कहता था

जब दिक्कत आती थी
अङ्ग्रेज़ी बोलने में
नौकरी की जगह पर
तब कोई था
जो झिझक मिटाता था

वो कोई था
वो अब भी है
मेरे दिल के भीतर
बीते दिनों की यादों के साथ 
इस सफर में
न कभी भूला हूँ
न कभी भूलूँगा
अपने शिक्षकों को।

शिक्षक दिवस पर सादर समर्पित --
चतुर्वेदी मैडम (श्री एम एम शैरी स्कूल कमला नगर आगरा-वर्ष 1988-2000)
श्रीवास्तव मैडम (श्री एम एम शैरी स्कूल कमला नगर आगरा-वर्ष 1988-2000)
जौहरी मैडम (श्री एम एम शैरी स्कूल कमला नगर आगरा-वर्ष 1988-2000)
सीमा राणा मैडम  (श्री राधा बल्लभ इंटर कॉलेज दयाल बाग आगरा-वर्ष 2000-2002)
डॉ रंजन पोरवाल सर (वाणिज्य संकाय-राजा बलवंत सिंह महाविद्यालय आगरा-वर्ष 2002-2005)
एवं सुब्रतो दत्ता सर को (जिन्होंने मेरी नौकरी के दौरान समय समय पर प्रेरित किया-वर्ष 2006)

~यशवन्त यश©

01 September 2013

किसे चुनूँ किस पर लिखूँ ?

नज़रों के सामने
फैले हुए हैं
ढेर सारे विषय
कुछ आकार में बड़े
कुछ बहुत ही छोटे
कुछ समुंदर की
अंतहीन गहराई लिये
पहाड़ों की ऊंचाई लिये 
कुछ
थोड़ा ही कुरेदने पर
मुट्ठी के भीतर 
समा जाते हैं
कुछ
पल मे ही
उफनाने लगते हैं 
सबके अपने शब्द हैं
अपनी भाषा है
अपना अलग व्याकरण है
और इन सबके सामने
कभी चौंकता
कभी ठिठकता
भ्रम में पड़ता
सोच में डूबा
निरीह सा 'मैं'
उलझा हूँ
किसे चुनूँ
किस पर लिखूँ ?
:)
  ~यशवन्त यश ©
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