07 October 2013

क्योंकि वह माँ नहीं......

कल सारी रात
चलता रहा जगराता
सामने के पार्क में
लोग दिखाते रहे श्रद्धा
अर्पण करते रहे
अपने भाव
सुगंध,पुष्प और
प्रसाद के साथ
नमन,वंदन
अभिनंदन करते रहे
झूमते रहे
माँ को समर्पित
भजनों-भेंटों की धुन पर ।

मगर किसी ने नहीं सुनी
नजदीक के घर से
बाहर आती
बूढ़ी रुखसाना की
चीत्कार
जो झेल रही थी
साहबज़ादों के कठोर वार
मुरझाए बदन पर  ।

कोई नहीं गया
डालने एक नज़र
क्या... क्यों... कैसे...?
न किसी ने जाना
न किसी ने समझा ...
क्योंकि
दूसरे धर्म की
वह माँ नहीं!
औरत नहीं!
देवी नहीं  !!

हमारी आस्था
हमारा विश्वास
बस सिकुड़ा रहेगा
अपनी चारदीवारी के भीतर
और हम
पूजते रहेंगे
संगमरमरी मूरत को
चुप्पी की चुनरी ओढ़ी
मुस्कुराती औरत के
साँचे में ढाल कर। 
 
~यशवन्त यश©

12 comments:

  1. यही तो विडम्बना है...

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  2. समाज की यही तो सबसे बड़ी बिडम्बना है ......उस देवी के सामने बोलते हैं जो कुछ बोलती नहीं जो चिल्ला चिल्ला कर पुकार लगाती है उसे सुनने के लिए किसी को फुर्सत नहीं ...मार्मिक प्रस्तुति ...

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  3. मार्मिक रचना |

    मेरी नई रचना :- सन्नाटा

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  4. बिल्कुल सही यह एक गंभीर समस्या है ....
    सार्थक रचना !!

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  5. ऐसी अभिव्यक्ति करने में बहुत कष्ट होता होगा न
    पढ़ कर तो रूह काँप गई

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  6. दिल के आक्रोश को शब्द दिए हैं ... दिखावे के इस वातावरण को बदलना होगा ... असल पूजा करनी होगी नारी शक्ति की ...

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  7. nice feelings
    doosre dharam ki chhodiye ham apne dharam kya apne vistrit pariwar mein bhi nhi kehte kuchh, dushton ki dushtta ki aur log sehansheel ban jate hain aur jo insaan kahe ye galat ho rha hai use chup karate hain.

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  8. poetry or prose ka sundar combination .. ham padhte hain bahut sara, likhte bhi hain bahut sara par kabhi kuchh kar bhi paate hain ???

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  9. जगराता करवाने वालों के घरों में भी शायद कभी यह होता होगा..मार्मिक रचना !

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  10. सच को उकेर दिया आपने समाज के उजले आँचल में

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