जन
कहीं खोया खोया सा
मारा मारा सा
भटकता रहता है
रात दिन
मुकाम की तलाश में
इक उम्मीद के साथ
कि इन अँधेरों में
कहीं कोई रोशनी हो
परवाज़ दे सके
जो उसके सपनों को।
तंत्र
काँटों का ताज लगाए
यूं तो बैठता है
मखमली कुर्सी पर
सोता है
अशर्फ़ियों के गद्दों पर
रोता है
फिर भी
छटपटाता है
बार बार याद आते
आश्वासनों के
जाल से
बाहर निकलने को
जिसे उसने
कभी खुद ही बुना था ।
जन-तंत्र
तंत्र
परिणाम है
जन के जपे
मंत्रों की तरंगों का
और जन
स्रोत है
तंत्र की
स्वतन्त्रता
उछृंखलता का ....
ज़रूरी है
दोनों का अस्तित्व
संतुलन को
क्योंकि दोनों ही
पूरक हैं
मछ्ली
और जल की तरह।
गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएँ!
~यशवन्त यश©
कहीं खोया खोया सा
मारा मारा सा
भटकता रहता है
रात दिन
मुकाम की तलाश में
इक उम्मीद के साथ
कि इन अँधेरों में
कहीं कोई रोशनी हो
परवाज़ दे सके
जो उसके सपनों को।
तंत्र
काँटों का ताज लगाए
यूं तो बैठता है
मखमली कुर्सी पर
सोता है
अशर्फ़ियों के गद्दों पर
रोता है
फिर भी
छटपटाता है
बार बार याद आते
आश्वासनों के
जाल से
बाहर निकलने को
जिसे उसने
कभी खुद ही बुना था ।
जन-तंत्र
तंत्र
परिणाम है
जन के जपे
मंत्रों की तरंगों का
और जन
स्रोत है
तंत्र की
स्वतन्त्रता
उछृंखलता का ....
ज़रूरी है
दोनों का अस्तित्व
संतुलन को
क्योंकि दोनों ही
पूरक हैं
मछ्ली
और जल की तरह।
गणतन्त्र दिवस की शुभकामनाएँ!
~यशवन्त यश©