01 February 2014

सिफर की तरह

घूम फिर कर 
सिफर की तरह
वहीं आ कर मिलना है
जहां से चले थे
रास्तों से अनजान
अनकही- अनसुनी
मंज़िल की ओर
हमेशा रहा है
संदेह
जिसके अस्तित्व पर .....
न लोगों का विश्वास है
न जज़्बात हैं
कुबूल करने को
हैं तो बस
चुभीली बातों के
कुछ तीर
जिनके
सीने से लगते ही
भोथरे हो कर
कहीं छिटक जाने से
कायम रहती है
मेरी वह मंज़िल
जो
औरों की नज़रों में
सिर्फ काल्पनिक है
लेकिन
मुझे पता है
मैं वहीं से चला हूँ
वहीं पर जाने को
सिफर की तरह।

~यशवन्त यश©

12 comments:

  1. beautiful composition yashwant ji...

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  2. सिफर ही बस सच है ..... जिसने इसे समझ लिया ,उसने तो सब कुछ पा लिया ....
    हार्दिक शुभकामनायें
    अच्छी अभिव्यक्ति

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  3. बहुत सुन्दर रचना..
    बेहद सार्थक भाव...
    सस्नेह
    अनु

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  4. काफी उम्दा प्रस्तुति.....
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (02-02-2014) को "अब छोड़ो भी.....रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1511" पर भी रहेगी...!!!
    - मिश्रा राहुल

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  5. ghum fir ke vahin milna hai sifar ki tarah....
    sach hai zindagi yahin ghumti hai...

    sunder rahna

    shubhkamnayen

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  6. अंततः ज़िन्दगी सिफर... बस यही सच है. बेहद भावपूर्ण रचना, बधाई.

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  7. जिंदगी सिफर .... फिर घूमफिर कर एक ही जगह पहुंचती है... बहुत सही बात

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  8. बहुत सुन्दर आत्मबोध! जहाँ से चले थे वहीँ पहुंचना है, लेकिन जब पहुँच जाते हैं, तब एक आनंद भी होता है- आत्मज्ञान का!
    सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई!
    सादर
    मधुरेश

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  9. ise padhkar aaya-jaise jahaj ko panchhi laute fir fir jahaj par...

    sunder abhivyakti

    shubhkamnayen

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