सोचता हूँ
न जाने कब
मौन को मिली होगी
भाषा
न जाने कब
गड़े गए होंगे अक्षर
और न जाने कब
अक्षर अक्षर जुड़ कर
बने होंगे
कुछ शब्द
फिर बनी होगी
भाषा
और उसकी
अनेकों परिभाषाएँ .....
आज
बाहर आ चुके हैं हम
शुरुआत के
उस दौर से
निकल चुके हैं
कहीं आगे
फिर भी देखते हैं
कभी कभी
पीछे की ओर
और पाते हैं
खुद को वहीं
जहां से
शुरू किया था चलना
जीवन का
पहला कदम।
~यशवन्त यश©
बहुत खूब !
ReplyDeleteवाह ...बहुत गहन अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteये तो रीत है अनादी काल से चली आ रही ... पृथ्वी भी तो आती है अपने स्थान पर वापस ... जीवन का भी अंत आता है शुरुआत पार ...
ReplyDeletewaah, bahut hi achha likha hai
ReplyDeleteshubhkamnayen
बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (24-02-2014) को "खूबसूरत सफ़र" (चर्चा मंच-1533) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने...
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति- -
ReplyDeleteआभार -
हर बच्चा जब आता है तो एक ऐसी भाषा को भी साथ लाता है जिसको शब्दों की जरूरत नहीं...सुंदर कविता !
ReplyDeleteबहुत सुंदर भाव.
ReplyDeletekisi ki kahi huyi lines yaad aa gayi ki kitna bhi aage kyun naa badh jaaye lekin gum-firke fir se usi jagah par aana hain.....:-)
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