10 April 2014

अधिकार और कर्तव्य

जो अधिकार है
कभी कभी
होता है
वह भी कर्तव्य ....
और जो
कर्तव्य है
कभी कभी
होता है
वह भी अधिकार ....
फिर भी कुछ लोग
नहीं कर पाते
सच को स्वीकार .....
उनके मन का अंधेरा
निकलने नहीं देता
रोशनी के पार
और वह
काटते रहते हैं
चक्कर
अपनी उसी सोच के
चारों ओर ....
उन्हें आदत है
सुनने की
बरसों से बजती
वही जिद्दी धुन
नयी सरगम से बेखबर
जिसका हर राग
अभ्यस्त है
खुद को दोहराते रहने का ....
और इसीलिए
परिवर्तन की हवा
उनकी परिधि से बाहर
बहते रह कर
निभाती चलती है
अपना कर्तव्य
अपना अधिकार
बिना सोच
बिना विचार
यह जानकर भी
कि अनचाहे
अनजाने ही
उसे निकल जाना है
छू कर
अस्तित्व खोतीं
उन चट्टानों को
जो कभी
अड़ी खड़ी थीं
पहाड़ की तरह।

~यशवन्त यश©

16 comments:

  1. बढ़िया रचना...सार्थक और सामयिक !!
    शुभकामनाएं
    अनु

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  2. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (11.04.2014) को "शब्द कोई व्यापार नही है" (चर्चा अंक-1579)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  3. आओ चलें का समर्थन किया था वो टिप्प्णी तो रीसाईकिल बिन में चली गई ।पर क्या किया जाये बिना टिप्पणी किये भी तो रहा नहीं जाता है :)
    चलिये कोई नहीं ।
    सुंदर रचना है ।

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    1. पिछली पोस्ट पर आपकी टिप्पणी अपने आप स्पैम मे गयी थी।
      प्रकाशित कर दी गयी है।

      सादर

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    2. मुझे लगा यश को गुस्सा आ गया :)

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  4. sarthak samayik abhivyakti .badhai

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  5. sarthak samayik abhivyakti .badhai

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  6. samyik rachna ......aadat hi to hai jo insaan ko bhatka deti hai raah se ......

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  7. उम्दा लिखा है.

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  8. सुंदर प्रस्तुति। अधिकार और कर्तव्य साथ साथ चसत् हैं।

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  9. सही कहा है

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  10. सार्थक और सामयिक रचना..शुभकामनाएं यशवंत..

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  11. बढ़ि‍या और सार्थक रचना...बधाई

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  12. सुन्दर रचना

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