वह रोज़ दिख जाता है
कहीं न कहीं
किसी न किसी के
बनते मकान के बाहर
फैली रेत और मौरंग से
अपने सपनों को
बनाते कभी मिटाते हुए .....
वहीं कहीं नजदीक
उसके माँ-पिता
जुटे रहते हैं
खून-पसीने की चाक पर
देने को आकार
किसी के
सुंदर सजीले महल को ....
एक महल
जो सुंदर नक्काशी में
ढल कर
घोंसला बनता है
जुबान से बेडौल लोगों का .....
और एक महल
जो नन्ही उँगलियों से
ढल कर
बन कर
कभी ढह कर
हौंसला बनता है
मिठास से भरी
उम्मीदों के कल का ....
वह रोज़ दिख जाता है
ईंट गारे का
ककहरा पढ़ते हुए
~यशवन्त यश©
कहीं न कहीं
किसी न किसी के
बनते मकान के बाहर
फैली रेत और मौरंग से
अपने सपनों को
बनाते कभी मिटाते हुए .....
वहीं कहीं नजदीक
उसके माँ-पिता
जुटे रहते हैं
खून-पसीने की चाक पर
देने को आकार
किसी के
सुंदर सजीले महल को ....
एक महल
जो सुंदर नक्काशी में
ढल कर
घोंसला बनता है
जुबान से बेडौल लोगों का .....
और एक महल
जो नन्ही उँगलियों से
ढल कर
बन कर
कभी ढह कर
हौंसला बनता है
मिठास से भरी
उम्मीदों के कल का ....
वह रोज़ दिख जाता है
ईंट गारे का
ककहरा पढ़ते हुए
किसी न किसी के
बनते मकान के बाहर
छोडता हुआ
अपनी निश्छल
मुस्कुराहट के तीखे तीर
जो चुभते तो हैं
पर होने नहीं देते
दर्द का एहसास
नोटों से बिक चुके
पत्थर दिलों को।
bahut hi achhi rachna
ReplyDeleteshubhkamnayen
बहुत बढ़िया !
ReplyDeleteबहुत बढिया..यशवंत..शुभकामनाएं
ReplyDeletebahut badhiya ji
ReplyDeleteवह टीस यहाँ तक पहुंची है ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (21-04-2014) को "गल्तियों से आपके पाठक रूठ जायेंगे" (चर्चा मंच-1589) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
कैसे चर्चाकार हो भाई।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट में से कोई मैटर या चित्र कैसे लें?
ताला तो खोलो।
सर! मैं तो ब्लोगस पर हर तरह का ताला लगा होने के बावजूद विंडोज़ 7 के फीचर्स का उपयोग कर के 'हलचल' बना लेता हूँ। लेकिन आपके आदेश को टाल भी नहीं सकता इसलिए मैंने प्रोटेक्शन हटा लिया है।
Deleteवैसे भी मैं बहुत बड़ा या प्रसिद्ध नहीं हूँ कि मेरे लिखे को चोरी जाने का कोई खतरा हो फिर भी कुछ शातिर लोगों की वजह से ही इसे लगाया था।
आपको हुई असुविधा के लिये हार्दिक क्षमा प्रार्थी हूँ।
सादर
छोडता हुआ
ReplyDeleteअपनी निश्छल
एक अत्यंत मर्मस्पर्शी रचना-----
जो मन को छू तो जाती है
लेकिन नहीं खोल पाती है
विवशताओं की बेड़ियों को
जिन्होंने जकड रखा है
आज के इंसान को
अपनी कैद में
निरंतर जूझने के लिये
नित नए संघर्षों से !
आभार !
गहरी बात .... मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteवह रोज दिख जाता है। कभी रेत के गिट्टी के ढेर के पास तो कभी पत्तों के खरपतवार के ढेर के पास हर जगह छोड जाता है अपनी निश्चल मुस्कान के फूल।
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteबहुत खूब..सुंदर अभिव्यक्ति !
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