सूखे चारागाहों में
रोज़ खुदती
सपनों की
नयी नयी नींवों को
जो जल्द ही चूमेंगी
अनेकों ख़्वाहिशों का
आसमान ....
और उन नींवों को खोद कर
सुनहरे वक़्त को
साँचों में ढालने वाले
उम्मीदों के फूस डली
झोपड़ियों में
यूं ही जीते रह कर
सुलगते रहेंगे
अस्तित्व खोती
बीड़ी की तरह .....
उनके हाथ
जो रंगे रहते हैं
बेहतरीन सीमेंट और
मनमोहक पेंट से
रंग नहीं सकते
खुद की दीवारें .....
वह तो बस
बदलते रहते हैं
खुद का ठौर
खुद के जीने का रंग
चलते रहते हैं
दुनिया के संग
फिर भी
गुमनाम ही रहते हैं
तन्हा नींव की
एक एक आह की तरह।
~यशवन्त यश©
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बृहस्पतिवार (01-05-2014) को श्रमिक दिवस का सच { चर्चा - 1599 ) में अद्यतन लिंक पर भी है!
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर !
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteबहुत सुंदर अभिव्यक्ति.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDeleteसुंदर सार्थक प्रस्तुति..
ReplyDeleteउनका जीवन यूँ ही गुजरता है ...ये दुखद ही है
ReplyDeleteवाह, बहुत खूब
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